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जैनन्यायपञ्चाशती
___17 • विशेषणविशेष्यभाव-अभाव के प्रत्यक्ष में 'विशेषणविशेष्य-भावसन्निकर्ष' होता है। जैसे 'घट के अभाव वाला भूतल'- यहां घटाभाव विशेषण है और भूतल विशेष्य है। यही इस सन्निकर्ष का स्वरूप है।
प्रत्यक्षज्ञान इन छः सन्निकर्षों से होता है। कहा भी है 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्'-इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है।
इस पद्धति से प्रत्यक्ष प्रमा का करण होने से इन्द्रियार्थसन्निकर्ष ही प्रमाण है, ऐसा नैयायिकों का कथन है।
प्रस्तुत कारिका के द्वारा इस मत का निराकरण किया जा रहा है-सन्निकर्ष अपने तथा पर पदार्थ के निश्चय में साधकतम नहीं है, क्योंकि सन्निकर्ष जड़ है। जड़पदार्थ न तो स्वयं को जानता है और न परपदार्थ को जानता है, इसलिए वह (सन्निकर्ष) स्व-पर की निश्चायकता में कैसे साधकतम हो सकता है? घट जड़पदार्थ है। जैसे वह अपना और पर-पदार्थ का निश्चायक ज्ञान नहीं कर पाता वैसे ही घट के समान जड़ सन्निकर्ष भी स्व-पर का निश्चायक नहीं होता। अतः ज्ञान ही प्रमाण है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। ज्ञान स्व-पर का प्रकाशक है। वह स्वयं और पर पदार्थों को जानता है। स्वप्रकाशक होते हुए भी ज्ञान पर-प्रकाशक होता है और वही प्रमाण है, इसमें कोई संदेह नहीं है। अतः स्व-पर-व्यवसायी ज्ञान का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। इस विवेचन से वे दार्शनिक भी निराकृत हो जाते हैं जो ज्ञातृव्यापार और कारकसाकल्य आदि जड़ीभूत पदार्थों को प्रमाण मानते हैं।
(९) पूर्वकारिकायां प्रमाणस्य लक्षणविषये विभिन्नमतवादान् निराकृत्य स्वपर-व्यवसायिज्ञानस्य प्रमाणत्वं व्यवस्थापितम्। सम्प्रति तद्भेदान् वर्णयितुमुपक्रमते
पूर्वकारिका में प्रमाण के लक्षण के विषय में विभिन्न मतवादों का निराकरण . करके स्वपरव्यवसायी ज्ञान का प्रमाणत्व व्यवस्थित किया गया है। अब उसके भेदों का वर्णन कर रहे हैं
। प्रत्यक्षञ्च परोक्षञ्च प्रमाणद्वयमुच्यते। विशदं तत्र प्रत्यक्षं,परोक्षमितरत्ततः॥९॥
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