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________________ उदय होने के कारण इसके अनुयायी मालवा के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी पाये जाते हैं। (3) गुमान पंथी : गुमान पंथ की स्थापना जयपुर निवासी पंडित टोडरमल के पुत्र गुमानीराम ने की। इस पंथ का नाम इसके संस्थापक के नाम के आधार पर गुमानपंथ पड़ा। इसका एक दूसरा नाम शुद्धाम्नाय भी कहा जाता है। क्योंकि इसके अनुयायी आचरण और चरित्र की पवित्रता पर जोर देते हैं और इसके लिये इस पंथ में अनुशासान के निश्चित नियम प्रभावशील किये। इस पंथ का उदय . 18वीं शताब्दी में हुआ। (4) बीसा पंथी : इस पंथ के मानने वाले भट्टारकों के अनुयायी हैं। इसकी उत्पत्ति संभवतः तेरहवीं श्ताब्दी में हुई। ऐसा कहते हैं कि भोजन करते समय भट्टारक नग्न रहते हैं और उनके शिष्य घंटी बजाते हैं जिससे सामान्य व्यक्ति उनके पास न आ सके। बीसा पंथी फल-फूल और मिठाई आदि से मूर्ति पूजा . करते हैं। ये अपने मंदिरों में तीर्थपुर प्रतिमाओं के साथ क्षेत्रपाल, भैरव आदि की प्रतिमाएं भी रखते हैं। ये आरती करते तथा प्रसाद वितरण करते हैं। पूजा करते समय ये खड़े न रहकर बैठे रहते हैं। ये भट्टारकों को अपना धर्मगुरु मानते हैं।" (5) तोता पंथी : एक समय बीसा पंथी और तेरापंथी सम्प्रदाय में एकता लाने के लिये प्रयास किये गये जिसके परिणामस्वरूप एक तीसरे पंथ उदय हुआ जो तोता पंथ कहलाया।- यह पंथ आधा बीसा पंथ और आधा तेरापंथ से मिलकर बना है इसलिये इसका दूसरा नाम साढ़े सोलह पंथ भी बताया जाता - जैनधर्म के भेदों और उपभेदों के अध्ययन से प्रकट होता है कि ये भेद वैचारिक मतभिन्न के परिणाम हैं। महावीरस्वामी के समय भी यह वैचारिक मतभेद था। उनके निर्वाण के पश्चात् अलग-अलग आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से जैनधर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत की जिस विषय में विवाद भी हुए। जहां कहीं इन आचार्यों का नवीन प्रकार की व्याख्या को पर्याप्त समर्थन न मिलकर विरोध का सामना करना पड़ा, वहीं उन्हीं आचार्य विशेष ने एक संघ अथवा पंथ विशेष की स्थापना कर दी। कुछ उनके अनुयायी बन गये और इस प्रकार एक नया संघ या पंथ बन गया। कुछ पंथ इस प्रकार भी बने कि दो संघों के एकीकरण की बात चली। दो संघों का एकीकरण तो नहीं हो सका किन्तु उसके स्थान पर एक नया ही संघ बन गया। मूलरूप में तो जैनधर्म एक ही है किनतु वृक्ष की शाखाओं-प्रशाखाओं की भांति इसमें भी संघ, गण, गच्छ और पंथों का प्रार्दुभाव हो गया जिनका पूजा-अर्चना करने का अपना-अपना ढंग है। 39 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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