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(5) दिगम्बर मतावलम्बियों के अनुसार तीर्थंकरों को निराश नेत्रों के साथ नग्न और अशोभित रूप में प्रस्तुत करना उचित है। इसके विपरित श्वेताम्बर मतावलम्बियों का कहना है कि ऐसा प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं।
__इस प्रकार जैनधर्म के इन दो भेदों में पर्याप्त अन्तर आ गया है। इस अन्तर के साथ ही यह बात भी है कि जैनधर्म के इन भेदों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वल्लभीपुर, रथवीरपुर और उज्जैन का नाम जोड़ा जाता है। जैनधर्म में भेदों से अनेक उपभेद बन गये हैं।
संघ, गण और गच्छ : राजनैतिक दृष्टिकोण से संघ और गण का अर्थ सुपरिचित है। संघराज्य जाति विशेष के राज्य का घोतक है तो गणराज्य जनता के शासन का प्रतीक है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में गण और संघ में कोई अन्तर नहीं था और ऐसा लगता है कि जैनधर्म में संघ और गण शहरों का प्रचलन तत्कालीन संघ, गणों से लिया गया है क्योंकि महावीर स्वामी के समय संघ और गणराज्यों का अस्तित्व सिद्ध है। गण का प्रमुख गधणर कहलाता था। 'गणधर धार्मिक और राजनैतिक दोनों क्षेत्रों में समान रूप से प्रयुक्त होता था। प्राचीन काल में जैनधर्म में संघ और गण का अस्तित्व यह प्रकट करता है कि उस समय सांसकृतिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोणों से जैन समाज भलीभांति संगठित था। गण समयांतर से गच्छ के रूप में भी जाना जाने लगा।
प्राचीनतम गण : कल्पसूत्र से विदित होता है कि उस समय सात गण इस प्रकार थे। यथा- (1) गोदास (2) उद्देह (3) उडुवाटिक (4) वेसवाटिक (5) चारण (6) मानव और (7) कोटिक।18 ।
___प्रथम गण की चार शाखाएं और कुल हैं। द्वितीय गण की स्थापना आर्यरोहण के द्वारा की गई थी और यह चार शाखाओं और छः कुलों में विभक्त हुआ। तीतय गण चार शाखाओं और तीन कुलों में बंटा है। चौथा गण कामधर्मी के द्वारा स्थापित किया गया और इसमें चार शाखाएं और कुल हैं। पांचवा गण चार शाखाओं और सात कुलो में विभाजित है। छठा गण चार शाखाओं और तीन कुलों में विभक्त हुआ। सातवां गण सुस्थित के द्वारा स्थापित किया गया था और यह चार कुलों तथा सात शाखाओं में विभक्त था।19
गच्छों की उत्पत्ति कोई एक समय नहीं हुई। समय के प्रवाह के साथ-साथ इनकी संख्या में भी वृद्धि होती रही। इसी तरह गच्छों के नाम भी किसी प्रभावशाली आचार्य के नाम पर, अच्छे कार्यों अथवा स्थानों के आधार पर ही इनके नाम पड़े हैं। महत्त्वपूर्ण गच्छों का विवरण इस प्रकार है:
(1) वृहद्गच्छ : कुछ लोगों के मतानुसार वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि को
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