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ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर ग्रन्थों की रचना की है, जो इतिहास परक ग्रन्थ बन गये हैं। इनमें विशेषकर चरित ग्रन्थ अधिक महत्व के हैं। ये किसी तीर्थकर या राजा को चरित् नायक मानकर लिखे होने से ऐतिहासिक सामग्री के आगार बन गये हैं। किन्तु इस प्रकार के ग्रन्थों का एक दोष यह है कि जैनधर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने में अनेक अतिश्योक्तिपूर्ण उल्लेख समाविष्ट हो गये हैं। ये स्वाभाविक ही ऐतिहासिक प्रमाणों के विरोधी हैं। अतः प्रसंगों का विशेष अध्ययन और विवेचन आवश्यक हो गया है।
जैन विद्वानों की एक अनूठी देन यह है कि वे पुस्तक समाप्त हो जाने के उपरांत अंत में एक प्रशस्ति अंकित करते हैं। इस प्रकार की प्रशस्तियां बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है। इन प्रशस्तियों से हमें ग्रन्थकार, लिपिकार, ग्रन्थ लिखने या ग्रन्थ की लिपि करने का कारण किसके कहने से ग्रन्थ लिखा अथवा ग्रन्थ की प्रतिलिपि की उसका नाम लेखन और लिपि करने का समय, ग्रन्थकार और लिपिकार का वंश, माता-पिता के नाम तथा जिस राजा के राज्यकाल में वह ग्रन्थ लिखा गया उसका नाम, जिस स्थान पर बैठकर लिखा गया उसके नाम आदि का उल्लेख मिलता है जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होता है। कुछ प्रशस्तियों में स्पष्ट ऐतिहासिक उल्लेख भी मिल जाते हैं। इसी प्रकार जो पट्टावलियां उपलब्ध है उनमें आचार्यों की परम्परा का उल्लेख होता है। पट्टावलियों से पट्टधर आचार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है। तीर्थमाला सम्बन्धी ग्रन्थों से मालवा के जैन तीर्थों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सचित्र ग्रन्थों से जैन चित्रकला के विकास, उपकरण एवं काम में आने वाले विभिन्न प्रकार के रंगों का तो पता चलता ही है, उसकी शैलीगत विशेषताओं की जानकारी भी मिली है। जैन चित्रकला जिसे कि अपभ्रंश शैली' का नाम दिया है अपना विशिष्ट स्थान रखती है। चित्रकला के उद्धरणों में हमें जैनधर्म की मान्यताओं का चित्रांकन मिलता है अथवा जैन तीर्थंकर के जीवन से सम्बन्धित किसी घटना का अंकन दिखाई देता है। इस प्रकार से जैन चित्रकला कला के अतिरिक्त अपने गर्भ में किसी कथानक को निहित रखती है।
(2) पुरातत्त्व : जिस बात का उल्लेख हमें साहित्य ग्रन्थों में मिलता है पर उसके लिये कोई पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता वह प्रमाणिक प्रायः नहीं माना जाता किन्तु जब पुरातात्विक अवशेषों के द्वारा भी उस साहित्यिक उल्लेख की पुष्टि हो जाती है तो वह प्रामाणिक सिद्ध होती है। पुरातत्व का साक्ष्य इतिहास के लिये एक जीवंत प्रमाण माना जाता है। मालवा में जैनधर्म से सम्बन्धित सबसे प्राचीन पुरातात्विक प्रमाण गुप्तकालीन हैं जो उदयगिरि (विदिशा)
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