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________________ मिलता है। मालवा में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों का प्राचीन अस्तित्व रहा है किन्तु बाहुल्य दिगम्बर सम्प्रदाय का ही प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त मालवा में जैनधर्म के विभिन्न उपभेदों के अस्तित्व के प्रमाण भी उनके उदय के कुछ ही बाद मिलने लगते हैं। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि मालवा में जैन धर्मावलम्बियों का बाहुल्य प्राचीन काल से ही रहा है। जैन जातियां लगभग समस्त मालवा में पाई जाती है किन्तु मालवा में ये कहां से किस प्रकार आई इसका कोई व्यवस्थित प्रमाण नहीं मिलता। मालवा में श्रीमाल वंश का प्रभाव अधिक परिलक्षित होता है क्योंकि इसका प्रमाण मिलता है कि इस वंश के लोग मालवा के सुल्तानों के समय उच्च पदों पर आसीन हुए। कुछ और वंशों के प्रभावशाली होने के भी उल्लेख मिलते हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए जैन कही जाने वाली कला के अनेक अवशेष मालवा में मिलते हैं। स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से यद्यपि साहित्यिक उल्लेख के अनुसार तो मंदिर महावीर स्वामी के समय से ही होना चाहिये किन्तु हमें इस काल का कोई अवशेष नहीं मिलता है। न ही कोई अवशेष मौर्यकालीन मिलता है किन्तु ईसा की चौथी शताब्दी से स्थापत्य कला के अवशेष प्राप्त होते हैं जो कला पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। वे अवशेष है उदयगिरि (विदिशा) की गुफाएं। इन्हीं गुफाओं में जैनधर्म से सम्बन्धित अभिलेख भी मिले हैं किन्तु गुप्तकालीन जैनमंदिर की अभी तक मालवा में प्राप्ति नहीं हुई है। विदिशा के पास ही ग्यारसपुर के जैनमंदिर भी उल्लेखनीय है किन्तु जैन मंदिरों की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि ऊन में हुई है। ऊन के जैन मंदिर खजूराहों शैली के हैं। इनकी विशेषता यह है कि ये पर्याप्त रूप से सुरक्षित भी हैं। इसके अतिरिक्त मालवा में उल्लेखनीय जैनमंदिरों की उपलब्धि हुई है जो स्थापत्य के उत्तम उदाहरण हैं। एक बात और महत्त्व की यह है कि कुछ ऐसे भी उदाहरण है जहां जैनमंदिरों पर अन्य धर्मावलम्बियों ने अपना अधिकार जमा लिया है ऐसे ही कुछ अन्य सम्प्रदाय के मंदिरों पर जैनधर्मावलम्बियों ने भी अधिकर कर उन्हें जैन मंदिर बना लिया है। इस प्रकार एक धर्म का दूसरे धर्म पर अतिक्रमण भी प्रमाणित है। .. जैन मूर्तिकला की दृष्टि से भी मालवा धनाढ्य है। चौथी शताब्दी ईस्वी से मालवा में जैन मूर्तियों की उपलब्धि होने लगती है। जैन मूर्तियां कलात्मक तो है ही साथ ही इन मूर्तियों पर जो लेख उत्कीर्ण हैं उनसे विभिन्न प्रकार की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। इन लेखों में तत्कालीन राजा का भी उल्लेख हुआ है। उनके तिथियुक्त होने से ये विवादास्पद भी नहीं है, यद्यपि कई प्रतिमा [155 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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