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________________ पहुंचते हैं कि मालवा में जो जैनाचार्य हुए हैं वे न केवल धार्मिक साधु ही थे, वरन् उनमें ऐसे भी आचार्य हो चुके हैं, जिन्होंने जैन आगम का सामान्य जनता के लिये अध्ययन सरल हो सके, इस हेतु उनको अलग-अलग भागों में विभक्त कर दिया। मालवा के जैनाचार्य योग्यतम आचार्य रहे हैं तथा अनेक आचार्य ऐसे भी रहे हैं जो वर्षों तक युगप्रधान आचार्य के पद को सुशोभित करते रहे थे। इसके अतिरिक्त जैनधर्म के आचार्यों के महत्त्व के अतिरिक्त एक सबसे बड़ी देन इन आचार्यों की साहित्य के विभिन्न अंगों की है। आज भी इन आचार्यों के साहित्य का अध्ययन विद्वानों के द्वारा किया जा रहा है। कई आचार्यों द्वारा लिखी गई पुस्तकों का उल्लेख तो मिलता है किन्तु उनकी.प्रतियां उपलब्ध नहीं है। हो सकता है कि भविष्य में ये कृतियां मिल जाय। अतः समग्र रूप से मालवा के जैनाचार्य न केवल जैनधर्म के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, वरन पूरे भारतीय साहित्य तथा इतिहास के लिये भी महत्त्वपूर्ण रहे हैं। . संदर्भ सूची 1 जैन परम्परा नो इतिहास, भाग-1, लो, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रंथ से उद्घत. पृष्ठ 17-18 15 मुनि हजारीमल स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ 684 2 संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृष्ठ 112-14 | 16 वही, पृष्ठ 685 अन्यथा संदर्भ 17 पट्टावली पराग संग्रह. पृष्ठ 137 3 श्री तपागच्छ पट्टावली, प्रथम भाग, पृ.43/ 18 संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृष्ठ 29-30 4 श्री पट्टावली पराग संग्रह, पृष्ठ 135 | 19 स्व.बाबूश्री बहादुरसिंहजी सिंघी स्मृति 5 श्री तपागच्छ पट्टावली. प्रथम भाग, पृष्ठ ग्रंथ, कि.सं., पृष्ठ 10, 11, 12 44 से 46 | 20 The Jain Sources of the History 6 वही, पृष्ठ 68 ____of Ancient Indian, Dr. J.P.Jain, 7 वही, पृष्ठ 68 Page 150-51. 8 श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ, पृष्ठ 21 संस्कृति केन्द्र, उज्जयिनी. पृष्ठ 117-18 453 22 The Jain sources of the History of 9 आर्यरक्षितसूरि का परिचय, श्रीमद् राजेन्द्र | Ancient India, Page 164. सूरि स्मारक ग्रंथ के आधार पर है। 23 अनेकांत, वर्ष 18, किरण 6. पृष्ठ 242, 10 श्री पठ्ठावली पराग संग्रह, पृष्ठ 137 | सं.246 के आधार पर अन्यथा संदर्भ 11 पट्टावली समुच्चय, प्रथम भाग, पृष्ठ 23/ दिये जायेंगे। 12 मुनिश्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ 677 | 24 History of Sanskrit Literature, 13 वही, पृष्ठ 683 Page 241-45 14 ऋषिमंडल प्रकरण श्लोक 34, उपदेशमाला | 25 The Jain sources of the History of सटीक प.208, परिशिष्ट पर्व सर्ग 12, Ancient India, Page 195 & onward. |152 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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