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________________ रहकर करीब 35 वर्ष गुजारे। यहीं पर ही वे स्वयं अध्ययन करते और अध्यापन कार्य के साथ-साथ ग्रन्थ रचना भी करते रहे थे।43 । पं.आशाधर के जीवन वृत्त के सम्बन्ध में पं.परमानन्द जैन शास्त्री लिखते हैं कि सन् 1192 में शाहबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज को कैद कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और अजमेर पर अधिकार कर लिया। तब आशाधर के पिता वगैरह मांडलगढ़ छोड़कर धारा में आये होंगे। उस समय आशाधर की अवस्था अधिक नहीं थी। सम्भवतः वे किशोर ही रहे होंगे, क्योंकि उन्होने व्याकरण और न्यायशास्त्र धारा में आकर ही पंडित महावीर से पढ़े थे।".. ___ मालव नरेश अर्जुनवर्मा का भाद्रपद सुदि 15 बुधवार सं.1272 का एक दानपत्र मिला है, उसके अन्त में लिखा है, "रचितनंदी महासंधि-राजा सलखणसंमतेनराजगुरुणामदनेन।" यह दान-पत्र महासांधि विग्रहिक मंत्री राजा सलखण की सम्मति से राजगुरु मदन ने रचा। इन्हीं के राज में अशाधार नालछे में रहे थे। राजगुरु मदन भी वही है जिन्हें आशाधर ने काव्यशास्त्र पढ़ाया था। इससे ज्ञात होता है कि उक्त राजा सलखण ही सम्भव है कि आशाधर के पिता सलखण हो। जब आशाधर का परिवार धार में आया था उस समय परराष्ट्र मंत्री विल्हण कवीश थे। सम्भव है उनके बाद अपनी योग्यता के कारण सलखण ने उक्तपद प्राप्त कर लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।45 आशाधरजी धारा से सलखणपुर सं.1282 के आसपास गये थे और वे उस समय गृहस्थाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित थे। क्योंकि उन्होंने वहां निर्मित 'रत्नत्रयविधि' में अपने को "गृहस्थाचार्य, कुजर" बतलाया है। उस समय वे पाक्षिक श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान कर रहे थे। वहां परमारवंशी देवपाल के राज्य में मल्लह के पुत्र नागदेव की धर्मपत्नी के लिये, जो उक्त राज्य में चुंगी व टैक्स विभाग में कार्यरत था, संवत् 1282 में संस्कृत गद्य में "रत्नत्रयविधि' नाम की कथा लिखी थी। रचना संवत की दृष्टि से यह सबसे पुरानी जान पड़ती है और बाद को वे जैनधर्म के प्रचार की दृष्टि से नलकच्छपुर में रहने लगे थे। (20) कवि दामोदर : वि.संवत् 1287 में दामोदर नाम के एक विद्वान् कवि गुर्जर देश से चलकर मालव देश में आये और वहां के सलखणपुर को देखकर संतुष्ट हुए। उन्होंने वीर जिनके चरणों में नमस्कार किया और स्तुति की। उस समय सलखणपुर में अमलभद्र नाम के संघवी रहते थे, जो काम के बाणों को विनष्ट करने के लिये तपश्चरण करते थे। अष्टमदों के विनाश करने में वीर और बाईस परीषहों के सहने मैं धीर थे। कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले सूर्य थे। कषाय और तीन शल्यों के विनाशक धीमन्त, सन्त और संयम के निधान थे। [1501] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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