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________________ आर्य वज्रस्वामी की आज्ञा प्राप्त कर आर्यरक्षित दशपुर की ओर विहार करने के पूर्व अपने दीक्षा गुरु आचार्य तौशलीपुत्र के दर्शनार्थ उनके समीप गये । आचार्यदेव ने अपने शिष्य आर्यरक्षित को सर्वथायोग्य समझकर आचार्य पद दे दिया एवं दूसरे भव की साधना में लग गये। आचार्य होकर आर्यरक्षित ने दशपुर की ओर विहार किया। नगर के समीप पहुंचते ही फल्गुरक्षित ने प्रथम जाकर माता को शुभ संदेश दिया। अधिक दिवसों के पश्चात् अपने पुत्र के आगमन का शुभ संदेश सुनकर रूद्रसोमा अत्यधिक प्रसन्नता से पुलकित हो उठी एवं पुत्र के स्वागत में जुट गई। जब पिता सोमदेव एवं माता रूद्रसोमा अन्य सम्बन्धियों एवं नागरिकों के साथ नगर के बाह्योद्यान में पहुंचे तो दर्शन कर वे दोनों मुग्ध रह गये । रूद्रसोमा प्रारम्भ से ही जैन मतावलम्बी श्राविका थी। अपने पुत्र के दीक्षित मुनिवेश में दर्शनकर उसके नयनों में हर्षाश्रु भर आये और वह अपने आपको धन्य मानने लगी। आचार्य आर्यरक्षित ने अपने माता पिता एवं जनसमुदाय को ऐसा प्रभावोत्पादक आत्मकल्याणकारी मंगलमय उपदेश दिया कि सभी दीक्षित होने के लिये प्रार्थना करने लगे और प्रव्राज्य स्वजनान सर्वान्, सौजन्य प्रकटीवृतक । । आर्यरक्षित ने माता पिता, भार्या तथा अन्यपरिवार जनों एवं दूसरे भाविक मनुष्यों को दीक्षा देकर मुनिव्रत दे दिया एवं इस प्रकार अपनी सज्जनता का शुभ परिचय देते हुए वह कार्य किया जो प्रायः बिरले ही जन किया करते हैं। जैन इतिहास के पूर्वाचार्यों के इतिहास का सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य आर्यरक्षितसूरि पूर्वाचार्यों में महान् परमोज्जवल, यशस्वी एवं सर्वतोमुखसी, प्रतिभासम्पन्न जैनाचार्य हो गये हैं। निश्चित ही वे अपने समय में उद्भट अद्वितीय विद्वान् एवं तत्ववेत्ता, आदर्श आचर्य थे। उनकी इस अलौकिक विद्वता एवं अभूतपूर्व देवोपम जीवन से मालव देश के प्राचीन दशपुर को वस्तुतः गौरवशाली महान् पद प्राप्त हुआ है। आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने न केवल अपने ही क्षेत्र में, अपितु यत्र-तत्रसर्वत्र विचरण करते हुए जहां-जहां समाज अज्ञानांधकार में लिप्त हो कुपथगामी हो रहा था, या पूर्व से ही था, उसको विशुद्ध जैनदर्शन का प्रकाश दान कर सन्मार्ग प्रदर्शित किया जिस पर चलकर असंख्य समुदाय ने आत्म कल्याण किया। उस समय की सुषूप्ति को जाग्रति में परिणित कर समाज में श्रावकों की संख्या में आचार्य प्रवर ने जो अभिवृद्धि की वस्तुतः वह असाधरण ही थी। एक बार जो भी व्यक्ति आपके सम्पर्क में आते कि उन्हें सहसा ज्ञान का चमत्कार-पूर्ण 136 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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