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________________ आर्यरक्षितसूरि अपनी जन्मभूमि दशपुर लौटकर आये तब राजा, पुरोहित, एवं नगरवासियों ने आपका हार्दिक अभिनन्दन के साथ भव्य स्वागत किया। आर्यरक्षित अपनी माता रूद्रसोमा को छोड़कर प्रायः समस्त परिवार से मिल चुके थे। वे अधिक उत्सुक होकर अपार प्रसन्नता के साथ माता के समीप चले गये एवं प्रणाम किया तो माता चतुर्दश विद्याधीत, अलौकिकगुण सम्पन्न आर्यरक्षित जैसे पुत्र का साधारण शब्दों में स्वागत करती हुई कुछ भी न बोलकर मौन हो गई। माता के इस ओदासिन्य पर आर्यरक्षित के विज्ञ किन्तु कोमल मानस पर वज्रघात सा हुआ और वे तत्काल ही विनय भरे शब्दों में अपनी माता से निवेदन करने लगे, "हे माता, क्या आपको मेरे अध्ययन से सन्तोष नहीं हुआ?" माता रूद्रसोमा ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर देते हुए अपने पुत्र से कहा- "आर्यरक्षित ! तेरे विद्याध्ययन से मुझे तब सन्तोष एवं प्रसन्नता होती जब तू जैनदर्शन एवं उसके साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेता । " माँ की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका में गये, जहां आचार्य श्री तौशलीपुत्र विराजमान थे एवं उनसे निवेदन किया कि, "भगवन्! मैं दृष्टिवाद का अध्ययन करने हेतु आपकी शरण में आया हूं।" आचार्य तौशलीपुत्र ने आर्यरक्षित की तीव्रता मेधा, प्रखर पांडित्य एवं सर्वतोऽधिक विनयशीलता देखकर यह अनुमान किया कि निश्चय ही यह जैन दर्शन का अध्ययन कर आत्मकल्याण के साथ ही जैन शासन की उन्नति में सहायक सिद्ध होगा। उन्होंने आर्यरक्षित को सम्बोधित करते हुए कहा- "दीक्षया धीयते हि सः वत्स दृष्टिवाद का अध्ययन दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ही किया जाता है। अतएव यदि तुम दीक्षा ग्रहण करो तो मैं तुम्हें सहर्ष दृष्टिवाद का अध्ययन करा दूंगा। अन्यथा नहीं। इसलिये कि जैन दीक्षा के बिना दृष्टिवाद का अध्ययन सर्वथा असम्भव ही है। " "ज्ञान प्राप्ति एवं विशेषतः मातृहृदय को सन्तुष्ट करने के लिये दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिये आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। भगवन्! मैं जैन दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रस्तुत हूं। मुझे यथाशीघ्र ही दीक्षित कर ज्ञान दान दीजिये प्रभो।” आर्यरक्षित ने आचार्य तौशलीपुत्र से करबद्ध होकर निवेदन किया । विशुद्ध ज्ञानपिपासु मैधावी आर्यरक्षित की प्रार्थना स्वीकार करते हुए आचार्य तौशलीपुत्र ने उन्हें दीक्षा दे दी एवं अन्य नगर में वे विहार कर गये। वहीं उन्होंने आर्यरक्षित को जप, तप, संयम अनेक सिद्धियों के साथ क्रमशः अंग तथा उपांग एवं सूत्र तथा कतिपय पूर्वों का अध्ययन कराया। इसी प्रकार "दृष्टिवादो गुरोः पार्श्वे यो भूतमपि सो पद्धति । " 134 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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