SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेणी में आता है, वह इस प्रकार हैं नयनंदी कृत सुदर्शन चरित अपभ्रंश का.खण्ड काव्य है जिसकरी रचना वि.सं.1100 में हुई। यह ग्रन्थ महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है। पं.आशाधर कृत अनेक काव्य ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। इनकी रचना भारतेश्वराभ्युदय में भरत के ऐश्वर्य का वर्णन है। इसे सिद्धचक्र भी कहते हैं क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्त में सिद्ध पद आया है। राजामती विप्रलम्भ खण्ड काव्य है जिस पर लेखक की स्वयं की स्वोपज्ञ टीका भी है। "इष्टोपदेश टीका" और जिन यज्ञकल्प जिसका कि दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्धार धर्मामृत का, एक अंग है पं.आशाधर की ही रचनाएं हैं। इसके अतिरिक्त और कोई काव्य ग्रन्थों की जानकारी हमें नहीं मिलती। जो महाकाव्य मिले हैं वे हमारी समयसीमा के पर्याप्त बाद के हैं जिनका उल्लेख करना उचित नहीं प्रतीत होता। ......... .... ...... (4) स्तोत्र साहित्य : स्तोत्रों में सबसे प्राचीन स्तोत्र सिद्धसेन दिवाकर के हैं। सिद्धसेन दिवाकर के दो स्तोत्र (1) कल्याण मंदिर स्तोत्र तथा (2) वर्धमान द्वात्रिंशिका स्तोत्र उपलब्ध है। इनका कल्याण मंदिर स्तोत्र 44 श्लोकों में है। यह पार्श्वनाथ भगवान का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रासाद गुण कम है और कृत्रिमता एवं श्लेष की भरमार है। परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है। किंवदन्ति है कि कल्याण मंदिर स्तोत्र का.पाठ समाप्त होते ही उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में शिवलिंग फट गया और उसके मध्य में पार्श्वनाथ की मूर्ति निकल आई।43 इसके अंतिम भिन्न छंद के एक पद्य में इसके कर्ता का नाम कुमुदचन्द्र सूचित किया गया है, जिसे कुछ लोग सिद्धसेन का ही दूसरा नाम मानते हैं। दूसरे पद्य के अनुसार यह 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है। भक्तामर के सदृश होते हुए भी यह अपनी काव्य कल्पनाओं व शब्द योजना में मौलिक ही है। हे, जिनेन्द्र, आप उन भक्तों को संसार से कैसे पार कर देते हैं, जो अपने हृदय में आपका नाम धारण करते हैं? हां जाना, जो एक मशक भी जल में तैर कर निकल जाती है, वह उसके भीतर भरे हुए पवन का ही तो प्रभाव है। हे जिनेश, आपके ध्यान से भव्य पुरुष क्षणमात्र में देह को छोड़कर परमात्म दशा को प्राप्त हो जाते हैं, क्यों न हो, तीव्र अग्नि के प्रभाव से नाना धातुएं अपने पाषाण भाव को छोड़कर शुद्ध सुवर्णत्व को प्राप्त कर लेती हैं। सिद्धसेन दिवाकर कृत वर्द्धमान द्वात्रिंशिका दूसरा स्तोत्र है। यह 32 प्रलोकों में भगवान वर्धमान महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है! प्रसादगुण अधिक है। भगवान महावीर को शिव, बुद्ध, ऋषिकेश, विष्णु एवं जगन्नाथ मानकर प्रार्थना की गई है। इन दोनों स्तोत्रों में सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला ऊंची श्रेणी की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy