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________________ ने शक संवत् 705 में वर्धमानपुर वर्तमान बदनावर जिला धार के पार्थ्यालय (पार्श्वनाथ के मंदिर की "अन्नराज वसति" में की और उसका जो शेष भाग रहा उसे वहीं के शांतिनाथ मंदिर में बैठकर पूरा किया। दिगम्बरी सम्प्रदाय के कथा संग्रहों में इसका तीसरा स्थान है। हरिषेण कृत कथाकोश की रचना श्री विनायकपाल राजा के राज्यकाल में बदनावर में की गई। विनायकपाल प्रतिहारवंश का राजा था जिसकी राजधानी कन्नौज थी। कथाकोश की रचना वि.सं.989 में हुई। यह कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का वृहद् ग्रन्थ है। यह संस्कृत पद्यों में रचा गया है और उपलब्ध समस्त कथाकोशों में प्राचीनतम सिद्ध होता है। इसमें 157 कथाएं हैं। जिनमें चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, वररूचि, स्वामी कार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी है। इस कथाकोश के अनुसार भद्रबाहु उज्जयिनी के समीप भाद्रपद में ही रहे थे और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त, अपरनाम विशाखाचार्य, संघ सहित दक्षिण के पुनाट देश को गये थे। कथाओं में कुछ नाम व शब्द जैसे मैदज्ज (मौतार्य) विज्जदाड़ (विद्युदंष्ट) प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए हैं. जिससे अनुमान होता है कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत कृति के आधार पर लिख रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोश को आराधनोद्भुत कहा है, जिससे अनुमानतः भगवती आराधना का अनुमान हो। आचार्य महासेन ने प्रद्युम्न चरित की रचना 11वीं शताब्दी के मध्य के भाग में की। अमितगति कृत धर्मपरीक्षा की शैली का मूल स्रोत यद्यपि हरिभ्रद कृत प्राकृत धूर्ताख्यान है तथापि यहां अनेक छोटे-बड़े कथानक सर्वथा स्वतंत्र व मौलिक हैं। ग्रन्थ का मूल उद्देश्य अन्य धर्मों की पौराणिक कथाओं की असत्यता को उनसे अधिक कृत्रिम, असम्भव व उटपटांग आख्यान कह कर, सिद्ध करके सच्चा धार्मिक, श्रद्धान उत्पन्न करता है। इनमें धूर्तता और मूर्खता की कथाओं का बाहुल्य है। प्राकृत कोषों में सर्वप्राचीन रचना धनपाल कृत पाइय लच्छी नाम माला है जो उसकी प्रशस्ति के अनुसार कर्ता ने अपनी भगिनी सुन्दरी के लिये धारा.नगरी में वि.सं.1029 में लिखी थी, जबकि मालव नरेन्द्र द्वारा मान्यखेट लूटा गया था। यह घटना अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है। धारा नरेश हर्षदेव ने एक शिलालेख में उल्लेख किया है कि उसने राष्ट्रकूट राजा खौट्टिगदेव की लक्ष्मी का अपहरण किया था। इस कोश में अमरकोश की रीति से प्राकृत पद्यों से लगभग 1000 प्राकृत शब्दों के पर्यायवाची शब्द कोई 250 गाथाओं में दिये हैं। प्रारम्भ में कमलासनादि 18 नाम पर्याय एक एक गाथा में, फिर लोकाग्र आदि 167 तक नाम आधी आधी गाथा में, तत्पश्चात् 597 तक एक एक चरण में और शेष छिन्न अर्थात एक गाथा में कहीं चार, कहीं पांच और कहीं 115 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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