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अभिन्न भी है, को समझने समझाने में सप्तभङ्गी न्याय सम्मत स्याद्वाद की उपयोगिता को रेखांकित किया है। स्याद्वाद के नाम पर भ्रमित करने वालों को उन्होंने चेताया भी है वे कहते हैं कि वीतराग मार्ग से हटकर जो भी उपदेश करे उनकी बातों में नहीं आना, यदि स्व कल्याण की इच्छा है। ज्ञान से भिन्न है आत्मा, ज्ञान से अभिन्न है आत्मा इस विषय को अब स्याद्वाद सिद्धान्त से प्रतिपादित करते हैं तो गुण व गुणी सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो जायेंगे और आत्मभूत लक्षण का अभाव हो जायेगा | गुण स्वभाव होता है, अतः संज्ञा, लक्षण व प्रयोजन की अपेक्षा दोनों में भिन्नत्व भाव है और प्रदेशत्व की अपेक्षा से अभिनत्व भाव है, इस प्रकार समझना। गुण-गुणी में अयुतभाव है, युतभाव नहीं है। अत्यन्त भिन्न भाव ज्ञान और आत्मा में नहीं है।
अपने उपर्युक्त कथन की प्रमाणिकता को बोध कराने में उन्होनें आचार्य समन्तभद्र के निम्न श्लोकों को प्रस्तुत ही नहीं किया उनके यथार्थ को भी स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयत्न भी किया है।श्लोक इस प्रकार है
द्रव्यपर्याययोरेक्यं तयोरव्यतिरेकतः। परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः॥ संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः। प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा॥
(आप्त मीमांसा) सन्दर्भोल्लेख2. मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना।
अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमामि तम || 1 || (स्वरूप संबोधन) 3. स्व० सं० परि० पृष्ठ – 13, . 4. वही, पृष्ठ- 13 5. पंचत्थिकाय संगहो गाथा – 10 6. स्व० सं० परि० पृष्ठ – 13-14 7. तदेव पृष्ठ-20
8. पंचत्थिकाय संगहो गाथा-8 9. स्व० सं० परि० पृष्ठ-28-31 10. वही पृष्ठ-33 11. वही पृष्ठ-38-47
12. वही पृष्ठ-53
- प्रो. श्रीयांश कुमार सिंघई अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान जयपुर परिसर, जयपुर
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