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64. वस्तु व्यवस्था में ज्ञाता - दृष्टा पना नहीं कर्तापना हानिकर है सोदाहरण
प्रस्तुति - संयमासंयम वस्तु में नहीं परिणति में है । वस्तु को ज्ञेय बनाकर देखें, रागद्वेष रूप नहीं । मुट्ठी का जहर मृत्यु का कारण नहीं मुख का जहर अनिष्ट है । वसन के साथ वासना अवश्य उतारें। पूजा-पूजा चाहने वाले की नहीं पूज्य की होती है। अच्छा सोचे - बोले और अच्छा ही करें। पृ० 317-18
65. पुण्यात्मन संयम पथिक परिवार धन्यभाग - संयम पथ के पथिक ही धन्यभाग्य है, आचार्य श्री विद्यासागर जी के परिवारीजनों की जो संयमपथ के पथिक बने - माता-पिता- भाई-बहिन और स्वयं तो हैं ही ये सभी महापुण्यात्मन् हैं । इसी प्रकार भ० ऋषभदेव जी सहित उनके समस्त परिवारी जीवा का मोक्ष पुरुषार्थ स्तुत्य है । स्वयं तीर्थेश, एक सुपुत्र चक्रवर्ती, दूसरा कामदेव, गणधर और अन्य बेटे मुनिराज यह सभी स्वाधीन भव्यात्मायें हैं नौकरी / किंकर से शूकर श्रेष्ठ है क्योंकि वह स्वाधीन है। पृ० 323
66. संस्कृति के संस्कार एवं जिनवाणी का अमृतपान - देवशास्त्र गुरु रूपी विद्युत संग्रह से अपना हृदयरूपी इन्वर्टर चार्ज कर लें। जैन समाज का संस्कारित छोटा बच्चा भी द्रव्य की डिब्बी लेकर नित्य मंदिर जाता है। 45 दिनोंपरान्त ही जिनदर्शन कराने की श्रेष्ठ परम्परा जैन संस्कृति में है। जो बालक अपनी माँ के आंचल से जितना दूध पी लेता हैं वह उतना ही परिपुष्ट होता है लिहाजा आप भी जिनवाणी माँ के 4 अनुयोग रूपी आंचलों से जिनदेशना रूप अमृत पथ का अधिकाधिक पान करके पुष्ट हो जावें । पृ० 352–326
67. गीतादि-भजनों में भी सैद्धान्तिक कथन हो- द्रव्यचतुष्टय का प्रभाव - आज पारस बनके या वीर बनके चले आना जैसे भजन बोलकर भगवान को ऊपर से नीचे उतारते हुए तथा तेरी कृपा से मेरा सब काम हो रहा है आदि भजनों के द्वारा कर्तापना सिद्ध किया जा रहा है। आत्मकल्याण में द्रव्य क्षेत्रकाल भाव भी प्रभावकारी होता है यथा केशर काश्मीर में ही क्यों होती है । सर्वत्र क्यों नहीं, क्योंकि क्षेत्र, जल वायु सभी योग्य साधन अपेक्षित है तथैव मुक्ति केवल भरतैरावत क्षेत्र से ही क्यों ? चतुर्थ काल में ही क्यों अथवा विदेह क्षेत्र से ही क्यों? मालवा के पास होता है किन्तु ग्रीष्मकाल में क्यों नहीं ? आदि अतः सिद्ध होता है कि मोक्ष प्राप्ति में द्रव्य चतुष्टय प्रभावशील है। पृ० 330
68. जैन संस्कृति में विहार परम्परा क्यों? भ० ऋषभदेव का समवशरण भी बिहार को प्राप्त हुआ, सर्वत्र जिनदेशना खिरी भव्य जीवों को धर्म लाभ हुआ तथैव श्रमण संस्कृति के मंगल विहार से संसारी जीवों को सर्वत्र धर्म लाभ मिलता है।
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स्वरूप देशना विमर्श -
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