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का विघ्न अंतराय न हो जाये । पर कुछ दुराग्राही भक्त 'नमोऽस्तु महाराज’ इतनी . तीव्रता से बोलेंगे कि चार महाराज और सुन लें और तब तक बोलते रहेंगे जब तक महाराज कार्य को विराम देकर आशीर्वाद न दे दें। आचार्य विशुद्ध सागर जी कहते हैं, ज्ञानी तूं महाराज को सुनाने आया था कि वंदना करने आया था। तेरी वंदना तो उसी समय हो चुकी थी। अब बंध न कर, उनकी एकाग्रता को भंग मतकर । वंदना तो करना पर बंध न करना।
कुछ परम्परा ऐसी हैं, साधु की चर्या में, वैयावृत्ति में, स्वाध्याय में, प्रवचन में कभी नहीं आयेंगे, यहाँ तक समाधिकाल में भी दर्शनकर धर्मसंचय नहीं करते, परन्तु जैसे ही समाधिमरण होगा, हंस निकलकर चला गया, तो पूरी समाज आबालवृद्ध पुद्गल को श्रीफल भेंट करने दौड़े चले आ रहे हैं। यह पर्याय का राग धर्म नहीं है। परम्पराधर्म के राग में धर्म को मत खो देना।
आचार्य श्री कहते हैं, देव,शास्त्र, गुरु की पूजा न करे वह जैन कहलाने का पात्र नहीं है, परन्तु ज्ञानी देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करते-करते तुझे वेदी से विशेष राग हो गया कि मैं इसी वेदी पर पूजा करूंगा, दूसरी पर नहीं, तो तेरे पास भी धर्म नहीं है। तू पुजारी तो है पर पूज्यता के लिए नहीं । सम्यक् दृष्टि को कहीं भी जगह मिल जाये उसे पूजा करके पूज्यता प्राप्त करनी है।
'अक्षयं परमात्मानं' हमारा परमात्मा एक बार हो गया तो हो गया वह पुनः वापिस लौटकर नहीं आयेगा। परन्तु हम तो भक्ति में उसे बुलायेंगे। कभी महावीर बनके, पारसनाथ बनके, ज्ञानी जैन दर्शन में अवतार वाद नहीं है और न ही हमारे भगवान पालन हारे हैं, और न ही निर्गुण हैं, परन्तु हम सिद्धांत को ताक में रखकर अन्य के भजनों की नकल करके जो भक्ति करते हैं वह शुभ में नहीं, मिथ्यात्व में ही लेकर जायेगी।जन्म-जन्म विभिन्न पर्याय में भटकायेगी।
मुनिराज का रात्रिकालीन सांस्कृतिक कार्यों में बैठना कितना शोभायमान होता है और तू उन्हें बैठने का आग्रह करके कौन सा पुण्य कर रहा है? यंत्रों से महाराज को नमोऽस्तु? ज्ञानी नमोऽस्तु का पुण्य नहीं मिलेगा, यंत्र के उपयोग का पाप अवश्य मिलेगा, कब चेतोगे,भो ज्ञानी! अब संभल जाओ।
आचार्य विशुद्ध सागर जी सभी को आगाह करते हुए लिखते हैं, लोग तत्त्व से इतने भ्रमित हो चुके हैं कि देवता के नाम पर और जादू टोना के नाम पर तीर्थंकर के शासन की शक्ति भी महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
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