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होता, सत का विनाश नहीं होता, द्रव्य-दृष्टि से यह सनातन क्रिया है। आत्मा कभी उत्पन्न नहीं हुई, कभी नष्ट भी नहीं होगी, अनादि से है और अनन्तकाल तक इसी प्रकार विद्यमान रहेगी। पूर्णतः विनाश नहीं होता, जिन शासन में तुच्छाभाव को किञ्चित् भी स्वीकार नहीं किया गया।तुच्छाभाव का अर्थ पूर्णतया- अभाव है, जब पूर्णतया अभाव ही हो जायेगा, तब द्रव्य का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जायेगा। ऐसा होने से लोकालोक का भेद समाप्त हो जायेगा और तब लोक-अलोक में क्या अन्तर रहेगा?.....- जैसा - अलोकाकाश शुद्ध आकाश है, क्योंकि वहाँ पर शेष द्रव्य नहीं है, उसी प्रकार छ: द्रव्यों के समूह को जो लोक संज्ञा प्राप्त है वह भी समाप्त हो जायेगी। संसार मोक्ष, पुण्य-पाप सब ही व्यर्थ हो जायेगा। सम्पूर्ण लोक में जड़ता-शून्यता का प्रसंग आएगा। अतः तत्त्वज्ञानियों! जिन-देव की देशना के अनुसार तत्त्व ज्ञान को प्राप्त करो। उत्पत्ति-विनाश द्रव्य में नहीं होता, उत्पाद-व्यय द्रव्य की पर्यायों में ही होता है, द्रव्य तो सद्भाव-रूप ही है
भावस्य णत्थि णासो णत्थि अभावस्य चेव उप्पादो।
गुण पज्जएसु भावा उप्पाद वए पकुव्वंति॥ . भाव “सत्” का नाश नहीं होता तथा अभाव 'असत्” का उत्पाद नहीं है, भाव गुण पर्यायों में उत्पाद-व्यय करता है, इस प्रकार पूर्णरूप से समझना। आत्म-द्रव्य में अभाव-भाव का पूर्ण अभाव है, अतः आत्मा की अनाद्यन्तता स्वतःसिद्ध है। आत्मा की त्रैकालिकता पर सम्यग्दृष्टि जीव को किसी भी प्रकार के प्रश्न ही नहीं उठते । प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है कि वह अपने आस्तिक्य गुण को पूर्णरूपेण सुरक्षित करके चले, आस्तिक्य गुण के अभाव में सम्पूर्ण गुणों का अभाव समझना चाहिए । अहो! उस व्यक्ति के यहाँ व्रत, नियम, तप, त्याग कहाँ ठहरता है, जहाँ आत्मा के प्रति आस्था नहीं है, आश्चर्य तो इस बात का है कि जब आत्मा को ही नहीं स्वीकारता तो फिर वह उपर्युक्त क्रियाएँ किस के लिए कर रहा है? लोक में मूढ़मतियों की कमी नहीं है, जिसके मध्य में से सम्पूर्ण लोक का वेदन कर रहा है, उसे ही नहीं वेद पा रहा......क्या कहूँ......... प्रज्ञा की जड़ता को । जिसकी बुद्धि जड़ भोगों में लिप्त है, वह चैतन्य-घन भगवान्-आत्मा को क्या पहचान पाएगा?....अहो प्रज्ञात्माओ! ध्रुव आत्म-द्रव्य को स्वीकार कर परम-तत्त्व को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । वह आत्मा और कैसी है?..."स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः स्थिति धौव्य उत्पत्ति/उत्पाद उत्पन्न होने योग्य, व्यय/विनाश होने योग्य, इस प्रकार धौव्य, उत्पाद और व्यय जिसका स्वरूप है, वह आत्मा है। द्रव्य का लक्षण सत् है और वह सत् उत्पाद, व्यय ध्रौव्यात्मक है, द्रव्य की त्रि-लक्षण- अवस्था त्रिकाल है, - ऐसा एक क्षण भी नहीं होता, जब द्रव्य में त्रि लक्षण धारा का वियोग होता हो, वह तो प्रति क्षण प्रवहमान रहती है। शुद्ध द्रव्य में शुद्ध परिणमन होता है, अशुद्ध द्रव्य में अशुद्ध
-स्वरूप देशना विमर्श
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