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________________ कर लिया जाता है उसी प्रकार परम तपोधन वीतराग योगी ध्यानाग्नि के माध्यम से कर्मकिट्टिमा को पृथक् कर शुद्धात्म तत्त्व को प्राप्त कर लेते हैं ।' द्रव्य लक्षण की विवेचना आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने आचार्य अकलंक के निम्न श्लोक के प्रवचन में प्रस्तुत की है "सोऽस्त्यात्मा सोपयोगेंऽयं क्रमाद्धतुफलावहः। यो ग्राह्योऽग्राह्यनाद्यन्तः स्थित्युत्पत्तिंव्ययात्मकः ॥' यहाँ आत्मद्रव्य की विवेचना के क्रम में आत्मा को स्थिति (धौव्य), उत्पत्ति (उत्पाद) और व्यय स्वरूप वाला बताया गया है। जिसे समझाने का सार्थक प्रयत्न स्वरूप देशना में अभिलक्षित होता है। पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थ सूत्र और सर्वार्थसिद्धि के वचनों से प्रभावक प्रवचनकार आचार्य विशुद्ध सागर जी कह रहे हैं "यहाँ वस्तु स्वरूप की गवेषणा से यह निष्कर्ष निकला कि आत्मा उभयधर्मी है- ग्राह्य भी है अग्राह्य भी है । यह नय सापेक्ष है निरपेक्ष रूप से नहीं है और वह आत्मा कैसी है। अनाद्यन्त है । द्रव्य की द्रव्यता त्रैकालिक है, द्रव्य का उत्पाद नहीं होता, व्यय नहीं होता जो उत्पाद व्यय होता दिखता है, वह पर्याय का होता है, द्रव्य की सत्ता प्रत्येक काल में विद्यमान रहती है, एक मात्र जीव द्रव्य की ही नहीं प्रत्येक द्रव्य की समझना । कहा भी है सत्ता सव्वपयत्थ सविस्सरूवा अणपज्जाया । 8 भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥ "सत्ता उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक, एक, सर्व पदार्थ स्थित सविश्वरूप अनंत पर्यायमय और सप्रतिपक्ष है, अस्तित्व अर्थात् सत्ता, सत् का भाव अर्थात् सत्त्व । विद्यमान वस्तु न तो सर्वथा नित्य रूप होती है न सर्वथा क्षणिक रूप ही होती है। वस्तु सर्वथा नित्य ही स्वीकारते हैं तो पर्याय का अभाव हो जाएगा। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानते हैं, तो प्रत्यभिज्ञान का अभाव हो जायेगा, नित्य एकान्त में सांख्य दर्शन का प्रसंग आता है, क्षणिक एकान्त में बौद्धदर्शन का प्रसंग आता है। प्रत्येक तत्त्व की प्ररूपणा सप्रतिपक्ष होती है। क्षणिक एवं नित्य दोनों ही एकान्तों के पक्ष को स्वीकार करने से वस्तु में क्रिया - कारण का अभाव दिखायी देता है। आत्मा अनादि और अनन्त रूप है। प्रत्येक द्रव्य स्वचतुष्टय में त्रिकाल से अवस्थित है, द्रव्य का लक्षण ही सत् है सद् द्रव्यलक्षणम्॥ जो सत् है, वह द्रव्य है- यह इस सूत्र का भाव है कि असत् का उत्पाद नहीं स्वरूप देशना विमर्श: Jain Education International For Personal & Private Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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