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________________ मुक्तामुक्तैकरूपो यः- आचार्य भट्ट अकलंक स्वामी ने अनेकांत- स्याद्वाद् शैली में विरोधाभास अलंकार के साथ मंगलाचरणं किया है। परमात्मा को मुक्त एवं अमुक्त कहा है। सामान्य अवधारणा तो मुक्त होने की ही है, परन्तु सैद्धान्तिक रूप से देखें तो मुक्त ही मानने पर गुणों का अभाव मानना पड़ेगा और गुणों का अभाव गुणी का अभाव है, फिर आत्मा अभाव ही मोक्ष कहलायेगा, फिर अनंत सुख का भोक्ता कौन होगा? यदि अमुक्त मानेंगे तो आत्मा सदा कर्म कलंक से मुक्त ही रहेगा तो मोक्ष का अभाव हो जायेगा । यहाँ आचार्य श्री ने "मुक्तामुक्तैकरूपो यः एक ही जीव को एक ही समय मुक्त एवं अमुक्त दोनों हैं, कैसे? “कर्मभिः संविदादिना' कर्मों से मुक्त हैं, पर ज्ञानादि गुणों से मुक्त नहीं अमुक्त हैं अर्थात् मोक्ष का अर्थ अभाव नहीं, मोक्ष का अर्थ छूटना है, अर्थात् सिद्ध आत्मा जिन पुद्गलीय काँ (स्पर्श, रस, गंध वाले) से बंधा था उनसे पृथक हो गये, परन्तु अनंत ज्ञान, दर्शन से सहित ही रहेंगे। ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को आचार्य श्री ने नमस्कार करके मंगलाचरण किया है। अक्षयं परमात्मानं-जिसका भूतकाल में क्षय नहीं हुआ, वर्तमान में क्षय नहीं हो रहा है और न ही भविष्य में क्षय होगा ऐसे त्रैकालिक ध्रुव अक्षय परमात्मा है। आचार्य श्री कहते है न वह किसी से प्रसन्न होते हैं न नाराज होते हैं, न पालनहार हैं और न मारणहार हैं वह तो अक्षय ही हैं। अक्षय अविनाशी परमात्मा पुनः संसार में नहीं आते। एक बार जीवद्रव्य शुद्ध होने के बाद पुनः अशुद्ध नहीं होता है। जो तीर्थंकर एक बार मुक्त हो गये वह पुनः जन्म नहीं लेते, अन्य तीर्थंकर का जन्म होता है, पहले का अवतार नहीं आचाराणां विघातेन कुदृष्टिनांच संपदा। धर्म-ग्लानि परिप्राप्त मुच्छ्रयंते जिनोत्तमा॥' जब आचार के विघात और मिथ्यादृष्टियों के वैभव से समीचीन धर्म ग्लानि को प्राप्त हो जाता है, प्रभावहीन होने लगता है, तब तीर्थंकर उत्पन्न होकर उसका उद्योत करते हैं, न कि अवतार लेते हैं। अन्य मतियों में यह मान्यता है कि भगवान् ही दुखीजनों की रक्षा के लिए अवतरित होते हैं, परन्तु यह मान्यता जिनशासन में स्वीकार नहीं की गयी, पर हम इसे गीतों में, भक्ति में स्वीकार कर, अपने मिथ्यात्व का ही पोषण करते हैं। परमात्मानं- अर्थात् परं उत्कृष्टं आत्मानं अर्थात् उत्कृष्ट पद को प्राप्त आत्मा जो केवलज्ञानादि रूप अंतरंग लक्ष्मी और समवसरणादि विभूतियुक्त बाह्य लक्ष्मी -स्वरूप देशना विमर्श 202 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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