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स्वरूप देशना में- मंगलाचरण वैशिष्ट्य
-७० जयकुमार 'निशान्त' आचार्य श्री भट्ट अकलंक देव विरचित स्वरूप संबोधन ग्रंथराज मात्र 25 (26) श्लोकों का अमृत कलश है। जिसके गूढ़ ज्ञानामृत रहस्य का आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज ने चिंतन व मंथन करके सरस, सुपाच्य, मिष्ठ हृदयंगम योग्य ‘स्वरूपदेशना नवनीत' सुधी श्रावकों के लिए इतनी सरलता से दिया है। जिसे मूढ़ से मूढ़ श्रोता भी पान करके सांसारिक क्षणभंगुरता, विषमता, रागद्वेष के दुश्चक्र एवं माया के मायाजाल से परिचित हो, क्षणांश के लिए किंकर्तव्यमूढ़ हो चिंतन करने पर विवश हो जाता है। जीवन की नश्वरता, भोगों की लालसा, कामना की ज्वाला से बचने का मानस बना लेता है, भले ही वह उससे अलग न हो सके। इसे हम उसकी कमजोरी कहें, कर्मोदय कहें, काललब्धि कहें; कुछ भी हो, आचार्य श्री के वचनामृत का अचिंत्य प्रभाव आज दृष्टिगोचर हो रहा है।
यह मंच जो युवा बाल मुनिराजों से शोभायमान है, इतने त्यागीव्रती इतने श्रावक श्राविकाएं एवं नवयुवक अपने भोगोपभोग, दूरदर्शन का आकर्षण, व्यापार एवं परिवार का व्यामोह छोड़कर, एकटक एकाग्रता पूर्वक एक-एक शब्द पीयूष को चातक की भांति हृदयंगम को लालायित हैं। जीवन को मंगलमय बनाकर मंगल आचरण की ओर प्रवृत्त होने का संकल्प कर सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहते हैं, यह सब माँ जिनवाणी के जिनसूत्रों का ही प्रभाव है जो आचार्य विशुद्ध सागर जी के श्रीमुख से देशनारूप प्रसारित हो रहा है।
स्वरूप संबोधन की देशना में आचार्य भगवान् मंगलाचरण में आत्म संबोधन की नहीं न्याय की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, आचार्य विशुद्ध सागर जी भी कहते हैं लिखने बैठे ‘स्वरूप संबोधन' लेकिन लिखते-लिखते न्याय शास्त्र लिख गये, क्योंकि अकलंक स्वामी का मूल विषय न्याय ही था।
मुक्तामुक्तकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना। . अक्षयं परमात्मानं, ज्ञानमूर्तिनमामि तम्॥' अन्वयार्थ- यः = जो, कर्मभिः संविदादिना = कर्मों से तथा सम्यक् ज्ञान आदि से क्रमशः मुक्तामुक्तैकरूपः = मुक्त और अमुक्त होता हुआ एक रूप है।
तम = उस, अक्षयं = अविनाशी, ज्ञानमूर्ति = ज्ञानमूर्ति, परमात्मानं = परमात्मा को, नमामि - (मैं भट्ट अकलंक) नमस्कार करता हूँ। स्वरूप देशना विमर्श
(201)
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