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________________ 26. 'श्राद्धंण भुञ्जीत। श्राद्ध का भोजन न करें। 27. जब भी रोटी सिकती है, चूल्हे में सिकती है, जब भी रोटी जलती है तो चूल्हे में ही जलती है। . 28. 'सधर्माविसंवादः। तीर्थंकर जिनेन्द्र की आज्ञा है, कि धर्मात्माओं के साथ वात्सल्य के साथ रहना चाहिए। 29. 'बन्ध्या से मत पूछना कि संतान उत्पत्ति का कष्ट कैसा होता है? 30. सम्यक्त्व-पर्याय कारण-समयसार है, चारित्र-पर्याय कार्य-समयसार है। 'क्रमाद्धे हेतु फलावहः। 31. मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते' आलाप पद्धति-212 जब मुख्य का अभाव होता है, तब प्रयोजन की सिद्धी के लिए उपचार की अराधना करते हैं। 32. हे वर्द्धमान! आप नहीं होते, तो मूर्ति किसकी? और आप है तो मूर्ति क्यों? मुख्य के बिना उपचार नहीं होता। 33. 'दंसणभझ भट्टा' - दर्शनपाहुड दर्शन से भ्रष्ट है वो भ्रष्ट ही है। 34. 'परमात्म प्रकाश में योगिन्दु देव ने रत्नत्रय को ही तीर्थ कहा है। 5. 'यो ग्राह्योऽ ग्राह्य नाद्यन्तः।' अब सब विकल्प छोड़ दो। 36. 'नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो' .जो इस पर्याय के परिणमन को तो स्वीकारती है, लेकिन पर द्रव्य के विनाश को नहीं स्वीकारती है। 37. धर्म होना बहुत जरूरी है और धर्मात्मा होना भी बहुत जरूरी है। 38. आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय। यों कबहूँ इस जीव को साथी सगा न कोय ॥ 39. संसार में वियोग व संयोग तो होते ही रहते हैं, लेकिन संयोग-वियोग में धैर्य आ जाए तो ज्ञानी! आनन्द आ जाए । 40. 'किं सुंदरम् किं असुंदरम्' स्वरूप देशना विमर्श 117 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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