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. अध्यात्मिक न्याय ग्रन्थ 'स्वरूप संबोधन के सूत्रों पर श्लोकों पर देशनाकार ने अपनी प्ररूपना में कहीं अन्याय किया हो ऐसा नहीं लगता। आगमोक्त न्याययुक्त कथन ही देशना में किया गया है। स्वरूप-देशना में द्रव्य-दृष्टि की उपादेयता और पर्याय-दृष्टि की हेयता सर्वत्र निहित है, पर फिर भी कुछ उद्धहरण जिसे विशेष समझा उसे अपनी मंद-बुद्धि से यहाँ प्रस्तुत किया है। अपनी अल्पज्ञता प्रगट करने के लिए भी शब्दों की अपूर्णता/कमी है। सिद्धान्त न्याय-दर्शन, भाषा का सौष्ठव, साहित्यिक भाषा की परिपूर्णता के अभाव में जो कुछ त्रुटियां हो गयी हो, वह मेरी हैं और जो अच्छी बात है वह आचार्य श्री का ही है। आचार्य श्री की देशना पर आलेख लिखना कुछ कठिन इसलिए लगा, जो भी मैं लिखूगा तो वह उनसे ही प्राप्त होने से मेरा कुछ भी नहीं है, हिन्दी भाषा का स्त्रोत भी आचार्य भगवन ही हैं। मात्र स्वरूपदेशना' आदि उनकी कृतियों से और देशना के श्रुत-पान से प्राप्त, कागज पर उतारने का कर्ता हूँ अन्य का नहीं। जो भट्ट अकलंक देव ने लिखा वहीं आचार्य भगवन विशुद्ध सागर जी ने कहा वही मैंने भी यहाँ अपनी कमजोर भाषा में, गुरु भक्ति से प्रेरित होकर लिखा है। समय-समय पर संघस्थ श्रमणों का वात्सल्य और सहयोग लेकर- आलेख लिखने का प्रथम प्रयास किया है, कमतारतायें क्षम्य हों।
इस पंचमकाल में स्वदीक्षित शिष्यों को भी अरिहंत का भेष धारण करने वाले, भावी भगवन्त जानकर प्रतिदिन प्रति - नमोऽस्तु करने वाले, ध्रुव द्रव्य-दृष्टि के धारक आगमोक्त चर्या के धनी, आचार्य भगवन् विशुद्ध सागर जी की कृति ‘स्वरूप-देशना' पर आलेख लिखने के भाव होने का हेतु, इस ग्रन्थ के प्रति विशेष लगाव कहो या अनुराग कहो, क्योंकि इस नर पर्याय में अगर कोई जैनागम का श्लोक कण्ठस्थ किया है तो इस ग्रन्थ का मंगलाचरण “मुक्तामुक्तैकरूपो यः........ ............. ही है। जब संघ सोलापुर चातुर्मास के उपरान्त महाराष्ट्र की यात्रा में था, तब विहार में मुनिश्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने संघ के साथ-साथ एक श्रावक गृहस्थ को पढ़ाया था, कण्ठस्थ करवाया था, वही मेरे लिए मोक्षमार्ग का सोपान बना, ‘स्वरूप-देशना' से स्वरूप-सम्बोधन हुआ।
इति अलम् परिशिष्ट:1. स्वरचित 2. वही 3. मूलाचार
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-स्वरूपदेशना विमर्श
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