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सब रूप से ही बंधे हैं और जितने आज तक छूटे हैं, सब स्वरूप से ही छूटे हैं। क्या देखा वज्र कुमार ने ? रूप ही तो देखा । जब रूप निहारा था, उसमें स्वरूप- देख लेता, रूपातीत पर लक्ष्य चला जाता, तो मोक्षमार्ग में गमन हो ही जाता । 40
विक्रमादित्य की द्रव्य- -दृष्टि बताते हुए कहा है कि.....
"दृष्टि हो तो ज्ञानी विक्रमादित्य जैसी हो । रहस्य की बात । सम्राट विक्रमादित्य पर एक स्त्री मोहित हो गयी। उसने उसी भाषा का प्रयोग किया। सीधे तो नहीं बोल सकी । क्या बोली? स्वामी मेरी तीव्र भावना है कि आप जैसे वीर सुभट बालक को जन्म दूँ । राजा विक्रमादित्य समझ गये कि इसकी दृष्टि खोटी हो गयी है। सम्राट धीरे से झुकता है और चरण पकड़ लेता है, कहता है 'माँ! मैं ही तेरा बालक हूँ। बालक होने में देर लगेगी मैं आज से ही तेरा बालक हूँ। उस माँ की आँखों से आँसू टपकने लगे। हाय! मेरे पापी मन को, क्या सोच रही थी ? और धन्य हो इस वीर पुरूष को, जो हर नारी को माँ कहता हो। ये भारत भूमि ऐसे ही महान नहीं है। ऐसे महान जीवों को अपनी छाती पर, गोदी पर रख चुकी है ।"*
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छोटे-छोटे सत्य दृष्टान्तों के माध्यम से आचार्य श्री ने द्रव्य-दृष्टि, पर्याय-दृष्टि की चर्चा देशना में सर्वत्र की है । तत्त्वज्ञ - व्यक्ति को प्रत्येक दृश्य में तत्त्व दृष्टि दिखाई देती है। इन दृष्टान्तों के द्वारा जन-सामान्य तक तत्त्व-दृष्टि पहुँचाने का प्रयास किया है। पृष्ठ 376 पर अमरावती चातुर्मास की घटना बताते हैं ...
"अमरावती चातुर्मास में, हम लोग शुद्धि को जा रहे थे। एक महाराष्ट्रियन अजैन छोटा सा बालक अपने घर द्वार पर खड़ा था। मेरा पैर एक क्षण को रूक गया। वह छोटा सा 5 वर्ष का बच्चा होगा। वो मराठी में कहता है - आई आई. . लवकर ये . जैनियों के भगवान् जा रहे हैं। एक क्षण को शरीर रोमांचित हो गया। यह बालक क्या बोल रहा है? यह 'साधु' नहीं बोल रहा है। जब इसको जैनियों के भगवान् दिखाई देते हैं, तो जो भगवान् की मुद्रा में है, उनको तो सिद्ध ही अपने आपको स्वीकारना चाहिए ।
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जैनियों के भगवान् जा रहे हैं, पाँच वर्ष के बालक को किसने सिखा दिया? अहो जैनियों! किसी को तो पत्थरों में भगवान खोजने पड़ते हैं, तुम्हारे सामने तो भगवान् होते हैं। तब भी भैया! किसी को भगवान् न दिखें तो 'पद्मनंदि पंचविंशतिका' में पद्मनंदि स्वामी कहते हैं- उसकी आँखें पत्थर की ही हैं। जैसे पाषाण की मूर्ति में हम चतुर्थ काल के अरहंतों की कल्पना करके उनकी पूजा आराधना करके, उसी फल को प्राप्त होओगे 1742
स्वरूप देशना विमर्श
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