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________________ "नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो" 20 ध्रुव सूत्र याद रखना कि एक मात्र श्रमण संस्कृति ऐसी है, जो इस पर्याय के परिणमन को तो स्वीकारती है, लेकिन द्रव्य के विनाश को नहीं स्वीकारती । यह कोई वैज्ञानिक का नियम नहीं है कि ऊर्जा का विनाश नहीं होता । ये सब जैन - दर्शन के सिद्धान्त है परिणमन तो स्वीकार है, लेकिन विनाशक नहीं है। लकड़ी जल गई तो आप कहते हैं कि नष्ट हो गयी, लेकिन ज्ञानी! नष्ट कहाँ हुयी वह राख बन गई। नष्ट तो कोई द्रव्य होता ही नहीं है। असत् का उत्पाद नहीं होता और सत् का विनाश नहीं होता द्रव्य दृष्टि से । यह भी ध्यान रखना सत् का विनाश भी होता है, असत् का उत्पाद भी होता है। पर्याय दृष्टि से जो पर्याय आज यहाँ नहीं है, ये जीव मनुष्य पर्याय को छोड़ता है, देव पर्याय को प्राप्त होता है, तो वर्तमान की मनुष्य पर्याय में देव पर्याय का असत् है और वर्तमान में मनुष्य पर्याय का सत् है । इस पर्याय का जब विनाश होगा तभी देव पर्याय का उत्पाद होगा पर्याय दृष्टि से सत् का विनाश भी होता है, पर्याय दृष्टि से असत् का उत्पाद भी होता है, लेकिन द्रव्य - दृष्टि से सत् का विनाश नहीं होता और असत् का उत्पाद नहीं होता । "2" द्रव्य - दृष्टि ही धौव्य दृष्टि है यह बतलाते हुए देशनाकार अपने जीवन वृत्त में गुरु विराग सागर जी और दादा गुरु विमल सागर जी महाराज का सोनागिर में हुए मिलन की चर्चा करते हुए कहते हैं. ......... "विराग सागर महाराज ने कहा आचार्य श्री से, प्रभु! आप तो गुरु हैं, मैं शिष्य हूँ, ऐसा कैसा नियोग है कि गुरु शिष्य की अगवानी करने आएं ? मुझे बहुत शर्म लगती है। गुरुदेव ! मुझे क्षमा करें। आप मेरी अगवानी करने क्यों आए ? उस समय उन वात्सल्य योगी के मुख से मंत्र निकला - विराग सागर! ये आपकी दृष्टि है, ये आपका सोच है कि विमल सागर अपने शिष्य की अगवानी करने आया नहीं। जब मैं अपने आसन पर होता हूँ और विराग सागर वन्दना करते हैं, तब मेरा शिष्य होता है। मैं विराग सागर की अगवानी करने आया ही नहीं हूँ, मैं तो, अरहन्त की मुद्रा की अगवानी करने आया हूँ। ये शब्द मेरे कानों में हमेशा गूँजते हैं। जिसको जिन मुद्रा में अरहन्त नजर आए, वही तो समयसार की आँख है । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं मुझे तो वनस्पति में भी अशरीरी सिद्ध भगवान् दिखते हैं। वे आँखें किस काँच की होगी जिन्हें निर्ग्रथों में भी भगवान् न दिखते हों । ज्ञानी ! ध्रुव दृष्टि और द्रव्य दृष्टि ये कोई कषायिक भाव नहीं है, कषायिक भाव का उपशमन भाव है।” 22 "घट घाते घट-प्रदिपो न हन्यते ... स्वरूप देशना विमर्श: Jain Education International 23 For Personal & Private Use Only 99 www.jainelibrary.org
SR No.004155
Book TitleSwarup Deshna Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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