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१६२ • श्रीनेमिनाथस्तोत्रसङ्ग्रहः
भाषा :
सहजि सलूणा सोहग सुंदर, राव करूं सिरिनेमिजिणेसर ! । तित्थेसर भयहरण जगजणमणचितीयचिंतामणि भवियकमलपडिबोहणदिणमणि तिहूयणतारणजाण ॥२१॥ अंतरंगवयरीडे पामी जिम रहउं रोलवीउ सामी । तिम जगगुरु अवधारि विवहरूवि कीय कम्म कुललिई । दुह भंडागर दंड पमायिइं भमी नइ भवचक्कि ||२२|| भवपुरि विनडिउ मोहनरेसारि, बहूअ परिहं तुह विण अलवेसरि । चउगइ चउपथमाहि सुजन - घर - सुत हउं वनितानइ । नेह बंध निबंधीयउ चउगइनइ, पालिउ भव दुह चारि ||२३|| विसय रसिहं हउं मूढ विलूधउ, पंचपयारि भववारणि रूधउ । लीधउ दुह भंडार राग-दोसि हउं जगहवदीउ |
जीतु असिरण भमीउ मयउ, रंक परि संसार ||२४|| तुह सासण वरयो अविहूणइ दुरुत्तर महं भवजलहि लही नई, पामीय दुक्ख अणंत, तिहुयणि सुरनरमाणविहंडण । सिवसुखसंपय मइबलभंजण, दुज्जयइंदिअ चराड ॥२५॥ सच्छाहिव तूं सरसि छतइ पहु जानु सिवपुरपंथि लहीहउं, लुसिउह भवरणे सुकय हीणदीणु भव पंकि । खुतु पाप करंत निसंक, कायर भव बीहंत ॥२६॥ अडवडीयां आधार जिनेसर, दुत्थिअ जण पीहर परमेसर, भावठि भंजण देव ! तूं करुणारस सायर सामी । सिरणागय रक्खण मई पामी राखि राखि जगनाह ! ||२७|| अंतरंग अरिदल निव्वारण कोइ न रक्खण तिहुअणि तूं विण, समरथ साहस धीर तूं जगवच्छल हउं निरधार |
आयर करि मूं हिव करि सार, वंछीय सुह दायार ॥२८॥
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