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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् संश्रावयामास। तथा चेदं पाद्यं पुराणं द्विविधमभूत् लोमहर्षणप्रोक्तं षट्खण्डमेकम् (१) उग्रश्रवःप्रोक्तं पञ्चखण्डं द्वितीयम् (२) तत्र लौमहर्षणमसम्पूर्ण भूमिखण्ड-पातालखण्डोत्तरखण्डानुपलब्धेः। औग्रश्रवसमपि स्वर्गखण्डविकलमेवास्माकमुपलब्धम्। न चौग्रश्रवसघटकानां भूमिखण्डपातालखण्डोत्तरखण्डानां लोमहर्षणघटकत्वमाक्षेप्तव्यम्, तेषामौग्रश्रवसत्वस्य तदक्षरस्वारस्येनैवावगमात्। तथाहि भूमिखण्डस्यान्ते भूमिखण्डं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते। मुच्यते सर्वदुःखेभ्यः सर्वरोगैः प्रमुच्यते॥१॥ इति भूमिखण्डस्तुतिमुक्त्वा तत्प्रसङ्गेन सम्पूर्णस्य पाद्यस्य स्तुतिः पठ्यते श्रोतव्यं हि प्रयत्नेन पद्माख्यं पापनाशनम्। प्रथमं सृष्टिखण्डं तु द्वितीयं भूमिखण्डकम्॥१॥ तृतीयं स्वर्गखण्डं च पातालं तु चतुर्थकम्। पञ्चमं चोत्तरंखण्डं सर्वपापप्रणाशनम्॥२॥ यह पद्मपुराण दो प्रकार का हो गया। एक लोमहर्षण के द्वारा कहा गया छः खण्डों वाला तथा दूसरा उग्रश्रवा के द्वारा कहा गया पाँच खण्डों वाला। क्योंकि उसमें लोमहर्षण के द्वारा कहा गया पद्मपुराण अपूर्ण है इसमें भूमिखण्ड, पातालखण्ड, उत्तरखण्ड प्राप्त नहीं होने से। उग्रश्रवा द्वारा श्रावित भाग भी हमको स्वर्गखण्ड से रहित ही उपलब्ध हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि उग्रश्रवा के (सुनाये गये) भूमिखण्ड, पातालखण्ड और उत्तरखण्डों को लोमहर्षण के घटक के रूप में मान ले, क्योंकि वे उग्रश्रवा के ही है ऐसा उसके वाक्य-विन्यास से भी ज्ञात होता है। जैसा कि भूमिखण्ड में कहा . भूमिखण्ड को सुनकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। सब दुःख रोगों से भी . मुक्त होता है॥१॥ इस प्रकार भूमिखण्ड की फलस्तुति कहकर उसी प्रसङ्ग के माध्यम से सम्पूर्ण पद्मपुराण की भी फलस्तुति कर दी गयी है : ___ पापों के नाशक पद्मपुराण का प्रयत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिए। प्रथम सृष्टिखण्ड, द्वितीय भूमिखण्ड॥१॥ तृतीय स्वर्गखण्ड, चतुर्थ पातालखण्ड तथा पाँचवा सब पापों का नाश करने वाला उत्तरखण्ड है॥२॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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