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पुराणनिर्माणाधिकरणम् एक आसीद् यजुर्वेदस्तं चतुर्द्धा व्यकल्पयत्। चातुर्होत्रमभूत्तर्मिंस्तेन यज्ञमथाकरोत् ॥६॥ आध्वर्यवं यजुर्भिः स्यादृग्भिहीनं द्विजोत्तमाः।
औद्गात्रं सामभिश्चक्रे ब्रह्मत्वं चाप्यथर्वभिः ॥७॥ तत: स ऋच उद्धृत्य ऋग्वेदं कृतवान् प्रभुः । यजूंषि च यजुर्वेदं सामवेदं तु सामभिः ॥८॥ एकविंशतिभेदेन ऋग्वेदं कृतवान् पुरा। शाखानां तु शतेनैव यजुर्वेदमथाकरोत् ॥९॥ सामवेदं सहस्रेण शाखानां प्रबिभेद सः। अथर्वाणमथो वेदं बिभेद नवकेन तु॥१०॥ भेदरैष्टादशैया॑सः पुराणं कृतवान् प्रभुः । सोऽयमेकश्चतुःपादो वेदः पूर्वं पुरातनात् ॥११॥ इति।
यजुर्वेद एक था। उसे चार भागों में विभक्त किया। उसमें चातुहौंत्र प्रतिष्ठित है, उससे (चातुहौंत्र) यज्ञ किया॥६॥
हे द्विज श्रेष्ठो! यजुमन्त्रों से आध्वर्यव कर्म, साममन्त्रों से औद्गात्र कर्म, ऋचाओं से होता का कर्म तथा अथर्व मन्त्रों से ब्रह्मत्व का विधान निर्णीत किया।
तदनन्तर प्रभु ने ऋचाओं को उद्धृत कर ऋग्वेद का निर्माण किया। यजुमन्त्रों को उद्धृत करके यजुर्वेद और सामयोनि मन्त्रों द्वारा सामगान का प्रणयन किया॥८॥
प्रथम ऋग्वेद को इक्कीस भेद से। यजुर्वेद को सौ शाखाओं से सम्पन्न किया॥९॥
फिर व्यास ने सामवेद को एक हजार शाखाओं में विभक्त किया और अथर्ववेद को नौ शाखाओं में विभक्त किया॥१०॥
व्यास ने पुराण के अठारह भाग कल्पित किये। सो इस प्रकार पूर्वकाल में ब्रह्म से प्राप्त चतुष्पादात्मक (किन्तु पाद विभाग रहित) एक वेद को नाना शाखा विभाग में विभक्त किया॥११॥
(कूर्मपुराण, ५२ अध्याय/९-२१)
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