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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् बनें। ये इसी उद्देश्य से अध्यापन कराते थे। भगवान् कृष्ण द्वैपायन से यह व्यवस्था चली। जब पैल आदि शिष्य विद्या और व्रत की पूर्ति से उभयस्नातकत्व की प्राप्ति कर समावर्तन चाहते हैं और व्यास से निवेदन करते हैं तो व्यास उन्हें कहते हैं ब्राह्मणाय सदा देयं ब्रह्म शुश्रूषवे तथा॥ शां. प. ३२७/४३ भवन्तो बहुलाः सन्तु वेदो विस्तार्यतामयम्॥ ४४ . श्रावयेच्चतुरोवर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः । वेदस्याध्ययनं हीदं तच्च कार्यं महत् स्मृतम् ॥ ४९ एतद् वः सर्वमाख्यातं स्वाध्यायस्य विधिं प्रति। उपकुर्याच्च शिष्याणामेतच्च हृदि वो भवेत् ॥५२॥ भगवान् व्यास समावर्तन (दीक्षान्त) शिक्षा देते हुए उन्हें स्वाध्याय विधि का उपदेश करते हैं जो इसका सूचक है कि गुरु एतदर्थ अनुकूल विचार रखते हैं। इस शिक्षा के मूल सूत्र ये हैं-शुश्रूषा भाव वाले ब्रह्म (वेद) को समर्पित अतएव ब्राह्मण को तो सदैव सभी परिस्थिति में वेद देना ही है। आप लोग अपनी संख्या बढ़ायें तथा वेद का विस्तार करें। ब्राह्मण के प्रामुख्य के साथ चारों वर्गों को वेदश्रवण करवाना है, वेद का यह अध्ययन ही महाकार्य माना गया है। यही पूरी स्वाध्याय विधि मैंने आप लोगों को कही है, तुम्हारे मन मस्तिष्क में यह बात सदैव रहे कि शिष्यों का सदैव उपकार हो। अब शिष्य विदा होने के उद्देश्य से पुनः व्यास के सम्मुख आकर निवेदन करते हैं महामुने हम इस मेरु से उतर कर भूमि पर जाना चाहते हैं वेदों को अनेक प्रकार से अनेक लोगों तक पहुँचाने के लिये। आप को ठीक लगे तो आदेश कीजिये, मूल पद्य यह शैलादस्मान् महीं गन्तुं कांक्षितं नो महामुने! वेदाननेकधा कर्तुं यदि ते रुचितं प्रभो! ३२८/४ यह सुनकर भगवान् व्यास कहते हैंक्षितिं वा देवलोकं वा गम्यतां यदि रोचते। अप्रमादश्च वः कार्यो ब्रह्म हि प्रचुरच्छलम् ॥ ६ पृथ्वी लोक को अथवा तुम्हें रुचिकर लगे तो देवलोक को जाओ। तुम्हें प्रमाद तनिक भी नहीं करना है, ब्रह्म पद पद पर प्रचुर छल वाला है। अत: कभी प्रमादवश पथभ्रष्ट मत होना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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