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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
आदि में भिन्नता होने से परिवार में तनाव उत्पन्न करते है तथा दूसरा अवैयक्तिक कारण ये वे कारण होते हैं, जो परिवार के किसी एक सदस्य के द्वारा नहीं, अपितु परिवार के सदस्यों में पीढ़ीगत भेद, अर्थहीन रूढ़िवादिता आदि के रूप में तनाव के हेतु बनते हैं ।
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विश्व - अशांति का एक मुख्य कारण सामाजिक - अशांति भी है। वस्तुतः, समाज एक अमूर्त कल्पना है। व्यक्तियों द्वारा ही समाज बनता है। जैनदर्शन की अनेकांतदृष्टि के आधार पर कहें, तो व्यक्ति और समाज- दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। यही कारण है कि सामाजिक - विषमताएँ भी व्यक्ति में तनाव उत्पन्न करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपनी मान-प्रतिष्ठा को बनाए रखना चाहता है और जब उसके अहं एवं स्वार्थ को कोई चोट पहुंचती है, तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त भी समाज में जाति, धर्म, अमीर, गरीब आदि के नाम पर उत्पन्न भेद-भाव भी व्यक्ति के साथ-साथ समाज में तनाव के कारण बनते हैं। सामाजिक कुरीतियाँ एवं अर्थहीन रूढ़ियाँ भी तनाव का कारण बनती हैं।
सिर्फ व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध ही नहीं, अपितु तनाव के कुछ धार्मिक - कारणों का भी शोध-ग्रन्थ के इस द्वितीय अध्याय में विश्लेषण किया गया है, जिसके अन्तर्गत, धर्म की कुछ रूढ़िगत आचार - मर्यादाओं के कारण युवावर्ग व वृद्धवर्ग के मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, इसे समझाया गया है।
तनाव का उद्गम स्थल मन होने से इस द्वितीय अध्याय में तनाव की उत्पत्ति के मनोवैज्ञानिक - कारणों का भी उल्लेख किया गया है । मन में उठने वाले विकल्प और उन विकल्पों से उत्पन्न होने वाली इच्छाएं, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं आदि भी व्यक्ति को तनावग्रस्त बना देती हैं, इस द्वितीय अध्याय में इसकी भी चर्चा की गई है। इस प्रकार, इस अध्याय में तनाव के विभिन्न कारणों का विश्लेषण किया गया है और इस सम्बन्ध में जैन- दृष्टिकोण को भी स्पष्ट किया गया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्धे के तीसरे अध्याय में चैतसिक - मनोभूमि और तनाव के सह-सम्बन्ध का विश्लेषण किया गया है। इसमें सर्वप्रथम आत्मा, चित्त और मन के सहसम्बन्ध को समझाया गया है। जैनदर्शन के अनुसार, आत्मा वह आधारभूमि है, जिससे चेतना या चित्त की अभिव्यक्ति होती है । चित्त आत्मा के ही चैतंसिक-गुणों की अभिव्यक्ति रूप है और
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