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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
गीता में भगवान् कृष्ण ने इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में कहा है कि जिस प्रकार जल में नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही मन - सहित विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय इस पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेने में समर्थ है। 576
इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं और ये इन्द्रियों के विषय जीवात्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार, व्यक्ति का विवेक और मानसिक-शांति- दोनों भंग हो जाते हैं और व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है, इसलिए कहा गया है- साधक शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श- इन पाँचों एन्द्रिक - विषयों के सेवन को सदा के लिए छोड़ दे | 577
तनावमुक्ति के लिए इन्द्रिय - विजय आवश्यक है, किन्तु क्या इन्द्रिय-विजय के लिए पूर्ण इन्द्रिय-निरोध सम्भव है ? इस प्रश्न- का उत्तर देते हुए डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- जब तक जीव देह धारण किए हुए है, उसके द्वारा इन्द्रिय-व्यापार का पूर्ण निरोध सम्भव नहीं । कारण यह है कि वह जिस परिवेश में रहता है, उसमें इन्द्रियों को अपने विषयों से सम्पर्क रखना ही पड़ता है 578 संसार में यह भी सम्भव नहीं है कि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों का उपयोग नहीं करे और जब तक इन्द्रियाँ हैं, व्यक्ति का बाह्य - जगत् से सम्पर्क भी होगा ही, ऐसी स्थिति में व्यक्ति कभी तनाव से मुक्त नहीं हो सकेगा। इस सम्बन्ध में तनावमुक्ति के लिए या इन्द्रिय-विजय के लिए आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में पन्द्रहवें भावना नामक अध्ययन में तथा उत्तराध्ययन में गम्भीरता से विचार किया गया है। उसमें कहा गया है- यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएं, अतः शब्दों का नहीं, शब्द के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा रूप देखा न जाए, अतः रूप का नहीं, रूप के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आई हुई सुगन्धि या दुर्गन्धि सूंघने में न आए, अतः गन्ध का नहीं, गंध के प्रति जगने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं
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उत्तराध्ययन सूत्र - 16/10
578 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ.सागरमल जैन, भाग-1,
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