________________
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
4.
विषयसंरक्षणानुबन्धी- रौद्रध्यान तीव्र क्रोध और लोभ से आक्रान्त व्यक्ति का चित्त रुचिकर विषयों की प्राप्ति के साधनरूप धन की रक्षा में संलग्न रहता है । अनिष्ट चिन्तन में रत रहना, सभी के प्रति शंकालु होना, दूसरों का घात करने के भावों से आक्रान्त रहना, विषयसंरक्षणानुबन्धी- रौद्रध्यान है। आकुलता तनाव का लक्षण है। ध्यानशतक में चारों रौद्रध्यानों को संसार की वृद्धि करनेवाले और नरकगति का मूल कहा गया है। 457 जैनधर्म के अनुसार, संसार - वृद्धि और नरकगर्ति दोनों ही दुःख के हेतु हैं या तनावयुक्त अवस्था हैं।
456
236
आर्त्तध्यानी हताश और परेशान होता है, रौद्रध्यानी अपनी निराशा को, चिंता को दूर करने के हेतु रौद्रध्यान करता है, लेकिन परिणाम यह होता है कि वह और अधिक तनावग्रस्त हो जाता है । रौद्रध्यान के जो लक्षण हैं, वे ही एक तनावग्रस्त व्यक्ति में भी पाए जाते हैं। ध्यानशतक में रौद्रध्यान के निम्न लक्षण हैं458 .
लिंगाई तस्स उस्सण्ण- बहुल- नाणाविहाऽऽमरणदोसा
तेसिं चिय हिंसाइसु बाहिकरणोवउत्तस्स | |26||
अर्थात्, जो इस हिंसा, मृषावाद आदि में वाणी और शरीर से संलग्न है, उस रौद्रध्यानी के उत्सन्न, बहुल, नानाविध और आमरण-दोष- ये चार लक्षण हैं।
1.
उत्सन्न-दोष रौद्रध्यानी विषय-भोग, वासना, कामना, राग-द्वेष आदि दोषों से तनावग्रस्त रहता है। उसे दूसरों को देखकर भी प्रसन्नता नहीं होती, अपितु वह ईर्ष्या से दुःखी होता रहता है और दूसरों के सुख को भंग करने का प्रयत्न करता है।
-
2. बहुल - दोष – दूसरों की प्रसन्नता को निराशा में बदलने के लिए या अपने सुख के लिए उसमें हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों की बहुलता आ जाती है ।
456
-
3. नानाविध-दोष - रौद्रध्यानी हिंसा, झूठ आदि अनेक क्रूर एवं दुष्ट प्रवृत्तियों को अपने तनावमुक्ति का अर्थात् स्वयं के सुख का हेतु मानता है, इसलिए वह नानाविध दोष करता है।
457
458
Jain Education International
सद्दाविसयसाहणधणसारक्खणपरायणमणि ।
सव्वाभिसंकणपरोवघात्कलुसाउलं चित्तं । । 22 ।। ध्यानशतक-22
ध्यानशतक - 24
ध्यानशतक - 26
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org