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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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दूसरा प्रकार -
पैरों को सीधा सम्मुख फैलाएं। हथेलियों को शरीर के पार्श्व में स्थापित करें। मेरुदण्ड, ग्रीवा समकोण में सीधा रहे। इसे दण्डासन भी कह सकते हैं। इसमें शरीर की आकृति दण्ड जैसी बन जाती है। तीसरा प्रकार -
सिद्धासन में ठहरें। बाएं पैर की एड़ी मलद्वार के निकट शुक्र वाहिनी नाड़ी पर स्थापित करें। दायें पैर को बाएं पैर पर रखें। बाएं पैर के टखने पर दाहिने पैर का टखना आ जाए। पैर के पंजे नितम्ब और पिंडलियों के बीच आ जाते हैं। मूल बन्ध कर पूरक करें। शक्ति केन्द्र
और स्वास्थ्य केन्द्र मल एवं मूत्र के स्थान को आकुंचित कर मन में दृढ़ संकल्प करें कि वीर्य ऊर्जा के रूप में रूपांतरित होकर मस्तक की ओर गति कर रहा है, अपान की शुद्धि हो रही है। समय - पांच मिनट से आधा घण्टा। लाभ - ब्रह्मचर्य में सहायक, वासना का क्षय, सौम्य-भाव । चौथा प्रकार -
ब्रह्मचर्य की साधना के लिए वजासन का यह प्रकार उपयोगी है। इस आसन से वज नाड़ी पर दबाव पड़ने से वीर्य-शुद्धि होती है।
विधि - दोनों घुटने मोड़कर पीछे पैरों को नितम्ब से पार्श्व में स्थापित करें। नितम्ब और मलद्वार के पास का भाग भूमि से सटा रहेगा। हाथों को घुटनों के ऊपर रखें। मूलबन्ध लगाएं। वीर्य-नाड़ी पर संकल्पपूर्वक मन को केन्द्रित कर ऊर्ध्वरेता की भावना करें। 'वीर्य ओज में परिणत हो'- यह चिन्तन करें।
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