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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग ५३ इस विषय में जिज्ञासा हो सकती है कि पाँचों इन्द्रियों में चक्षु को ही अप्राप्यकारी क्यों माना गया ? इस जिज्ञासा का समाधान एक दृष्टान्त से हो सकता है कि चक्षु अपने साथ स्पर्शित हुए अर्थात् आँख में लगे काजल को नहीं देख सकती, जबकि दूर की वस्तु देख लेती है ।। इसी प्रकार मन भी अस्पृष्ट अथवा अव्यक्त पदार्थको ग्रहण करता है । यही कारण है कि चक्षु और मन द्वारा सिर्फ अवग्रह रूप ग्रहण ही होती है, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञान नहीं होता । नंदीसूत्र (सूत्र ३५) तथा भाष्य में अवग्रह आदि का काल प्रमाण बताते हुए कहा गया है कि - अवग्रह का काल एक समय का, ईहा हा अन्तर्मुहर्त, अवाय का भी अन्तर्मुहूर्त तथा धारणा का काल संख्यात अथवा (युगलियों की अपेक्षा) असंख्यात काल है । . अवाय (किसी भी विषय के रूप में निश्चयात्मक) होने पर भी यदि उपयोग उसी विषय पर लगा रहे तो अवाय अविच्युति धारणा के रूप में परिणत हो जाता है । 'अविच्युति धारणा से वासना का निर्माण होता है)और वासना की दृढ़ता स्मृति को प्रबल बनाती है तथा उसे उद्बोधित करने में एक शक्तिशाली निमित्त बनती है। यही प्रबल धारणा अथवा वासना, या सामान्य भाषा में दृढ़ संस्कार ही प्रत्यभिज्ञान और यहां तक कि जातिस्मरणज्ञान के कारण होते हैं । मतिज्ञान के ३३६ अतवा ३४० भेद - अवग्रह के दो भेद हैं - अर्थावग्रह तथा व्यंजनावग्रह । अर्थावग्रह तथा ईहा, अथवा और धारणा - ये चारों पांच इन्द्रियों और छठे मन से होते हैं अतः ६x४ = २४ भेद अर्थावग्रह के हुए; किन्तु व्यंजन अवग्रह मन और चक्षु के अतिरिक्त चार इन्द्रियों से होता है तथा इसके ईहा, अवाय और धारणा भी नहीं होते अतः इसके कुल भेद (४४१) ४ ही हैं । इन दोनों २४ और ४ का योग २८ होता है । इसको बहु, बुहविध, क्षिप्र आदि १२ प्रकारों से गुणा करने पर (२८x१२) = ३३६ भेद होते है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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