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________________ ४४ सत्यार्थ सूत्र SISE मणपज्जवणाणं (५) के वलनाणं । -नन्दी सूत्र १; अनुयोगद्वार सूत्र १; भगवतीसूत्र, श. ८, उ. २, सूत्र ३१८; स्थानांग स्थान ५, उ. ३, सूत्र ४६३ - ज्ञान पाँच प्रकार का है - (१) आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान) (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान). सम्यग्ज्ञान के मूल प्रकार (भेद) मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-के वलानि ज्ञानम् ।९। . मूल भेदों की अपेक्षा सम्यग्ज्ञान पाँच प्रकार का है - (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सम्यग्ज्ञान के पाँच मूल भेदों का उल्लेख किया गया है । आगम में आया हुआ 'आभिनिबोधिक' शब्द और मतिज्ञान एकार्थवाची हैं, इनमें कोई अन्तर नहीं है ।, __मतिज्ञान - मन एवं इन्द्रियों की सहायता से होता है । इसमे पाँचो इन्द्रियों में से कोई भी एक इन्द्रिय भी निमित्त हो सकती है । भाव यह है कि मतिज्ञान एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय सभी जीवों को होता है । मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है । यानि मतज्ञिान द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानना अथवा उस ज्ञान से अन्य पदार्थों को जानना श्रुतज्ञान का कार्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा तथा मर्यादा लिए हुए रूपी/स्पर्श, गन्ध, रस, वर्ण वाले ) पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान जिसके द्वारा जीव को प्राप्त होता है, वह अवधिज्ञान कहलाता है । अन्य के मन में अवस्थित अथवा हृदयगत भावों को जिसके द्वारा जीव प्रत्यक्ष जानता है, वह मनःपर्यवज्ञान कहा गया है । केवलज्ञान - समस्त लोकालोक और तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) के सभी पदार्थों को हस्तामूलकवत् प्रत्यक्ष जानता है । यह पाँचो ही ज्ञान सम्यक् है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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