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३८ तत्त्वार्थ सूत्र शब्द अधिक है अर्थात् ९ प्रकार बताये गये हैं, जबकि प्रस्तुत सूत्र में ८ ही दिये हैं । सूत्रकार ने संक्षेप में वर्णन करने के दृष्टिकोण से 'द्रव्यप्रमाण' के साथ 'संख्या' में आगमगत 'भाग' का अन्तर्भाव कर लिया है ।
वस्तुतः अनुयोगद्वार का अभिप्राय है प्रश्नअथवा जिज्ञासा के माध्यम से या उत्तर रूप में व्याख्या अथवा विवरण । वस्तु को भली भांति समझने के लिए प्रश्न उबुद्ध होना आवश्यक है और फिर उस प्रश्न के समाधान के लिए अनुयोग अथवा व्याख्या भी जरूरी है । इसीलिए 'सत् संख्या' आदि
को अनुयोगद्वार भी कहा गया है क्योंकि ये वस्तु में प्रवेश के अर्थात् उसके विशेषज्ञान के द्वार उघाड़ने के लिए कुंजीस्वरूप हैं, इनके माध्यम से तलस्पर्शी ज्ञान होता है ।
. सूत्रोक्त इन आठों उपायों का यद्यपि प्रत्येक वस्तु के गहन ज्ञान प्राप्ति के लिए उपयोग किया जाता है किन्तु इस ग्रन्थ में मोक्ष-मार्ग की प्रथम सीढ़ी के रूप में सम्यग्दर्शन की प्रमुखता है, अतः सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में इनका संक्षिप्त परिचय जानना उपयुक्त और उपादेय हैं ।
- (१) सत का अभिप्राय सत्ता अथवा अस्तित्व या अवस्थिति है । यद्यपि सम्यग्दर्शन की सत्ता (सत्) तो गुण रूप से, प्रत्येक जीव में विद्यमान है, किन्तु उसकी व्यक्ति या अभिव्यक्ति भव्य जीव में ही हो सकती है, यही यहाँ सत् का अभिप्राय हैं ।
. (२) संख्या (गणना अथवा गिनती) की अपेक्षा विचार करनेपर भूतकाल में अनन्त जीवों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया है और भविष्य में भी अनन्त जीव प्राप्त करेंगे अतः सम्यग्दर्शन संख्या की अपेक्षा अनन्त है ।
(३) क्षेत्र की अपेक्षा विचार करने पर सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवां भाग ही हैं ।
(४) स्पर्शन - सम्यग्दर्शन का स्पर्शन-क्षेत्र लोक का असंख्यातवां भाग है; किन्तु यह क्षेत्र की अपेक्षा बड़ा होता है । इसका कारण यह है कि 'क्षेत्र' में तो आधेय का केवल आधारभूत आकाश ही परिगणित किया जाता है जबकि 'स्पर्शन' में जितने आकाश का आधेय (यहाँ सम्यग्दर्शन) स्पर्श करता हैं, उस सबको सम्मिलित कर लिया जाता है ।
(५) काल - काल की अपेक्षा सम्यग्दर्शन अनादि अनन्त है । भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब सम्यग्दर्शन का अस्तित्व न रहा हो। इसी तरह भविष्य में भी सम्यग्दर्शन रहेगा और वर्तमान में तो है हो।
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