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________________ ४६८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय १० : सूत्र ५-६ मुक्तजीव का ऊर्ध्वगमन और गतिक्रिया के हेतु - तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् । ५ । पूर्व प्रयोगादसं गत्वाद् बंधच्छेदात्तथागति परिणामाच्च तद्गतिः । ६ । तदनन्तर अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों का क्षय अथवा नाश हो जाने पर ( उसी समय ) मुक्त जीव लोकान्त तक ऊपर जाता है। उसकी वैसी गति (ऊपर जाने की गतिक्रिया अथवा ऊर्ध्वगमन क्रिया) पूर्वप्रयोग से, असंगता अथवा संगरहितता से, बन्धन ( कर्म - बन्धनः नष्ट हो जाने से, और वैसी गति क परिणाम से होती है । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र सं. ५ में बताया है कि कर्मों का क्षय होते ही जीव ऊर्ध्वगति करता हुआ लोक के अन्त तक जाता है और छठे सूत्र में जीवं की ऊर्ध्वगति के चार कारण बताये हैं (१) पूर्वप्रयोग ( २ ) संगरहितता (३) बन्धननाश ( ४ ) वैसी गति का परिणाम लोकान्त का अभिप्राय लोक का अन्तिम भाग, वह बिन्दु जहाँ से अलोकाकाश का प्रारम्भ होता है। लोक के उस अन्तिम भाग के स्थान का नाम सिद्धालय है । इस स्थान पर जीव ऊर्ध्वगति से गमन करता हुआ, बिना मोड़ लिए, सरल-सीधी रेखा में गमन करता हुआ, अपने देह-त्याग के स्थान के एक समय मात्र में सिद्धशिला से भी ऊपर पहुँचकर अवस्थित हो जाता जीव की वह सर्वकर्मविमुक्त दशा सिद्ध दशा) अथवा सिद्ध गति कहलाती है। - सर्वकर्मबन्धन टूटते ही जीव में चार बाते घटित होती है - ( १ ) औपशमिक आदि भावों का व्यच्छन्न अथवा नाश होना, (२) शरीर का छूट जाना (३) एक समय मात्र मे सिद्धशिला से ऊपर तक उर्ध्वगति से गमन और (४) लोकान्त में अवस्थिति । अब प्रश्न यह है कि मुक्त जीव ऊर्ध्व दिशा में ही गमन क्यों करता हैं तथा उस गमनक्रिया के हेतु क्या हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान सूत्र संख्या ६ के द्वारा किया गया है। (१) पूर्वप्रयोगात् - पूर्व यानी पहेल के प्रयोग से. प्रयोग का यहाँ अभिप्राय आवेश है। जिस प्रकार कुम्हार का चाक ( पहिला या चक्र) दण्ड को हटाने के बाद भी कुछ देर तक स्वयं ही घूमता रहता है, उसी प्रकार मुक्त जीव भी पूर्वबद्ध कर्म-उन कर्मों केछूट जाने के बाद भी उनके निमित्त से प्राप्त आवेग द्वारा गति करता है उसी प्रकार जैसे कुम्हार का चाक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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