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________________ Home मोक्ष. ४६५ योग का आश्रय लेकर मन और वचन का निरोध करते हैं तथा अन्त में सूक्ष्मकाययोग का निरोध करके अयोगी बन जाते है ।। उनकी यह दशा 'शैलेशी दशा' कहलाती है ? क्योंकि इसमें श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्मक्रिया भी शेष नहीं रहती ।। फिर 'अ' 'इ' 'उ' 'ऋ' 'लु' इन पांच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने काल में ही चतुर्दश गुणस्थानवर्ती बनकर सर्वकर्मों का क्षय कर देते हैं और मुक्त हो जाते हैं । यह सम्पूर्ण कर्मों (अघाती कर्मों) की क्षय प्रक्रिया है। आगम वचन नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए । - प्रज्ञापना, पद १८ खीणमोहे (के वलसम्मत्तं) के वलनाणी के वलदसणी सिद्धे । - अनुयोगद्वार सूत्र, षण्णामाधिकार सू. १२६ सिद्धा सम्मादिछी । -प्रज्ञापना १९, सम्यक्त्व पद (उस समय न भव्यत्वभाव रहता है और न अभव्यत्वभाव रहता है।) (औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा भव्यत्व (तथा अभव्यत्व) भावों का और पुद्गल कर्मों की समस्त प्रकृतियों का नाश होने पर मोक्ष होता क्षीण मोह वाले (केवलसम्यक्त्व वाले) केवलज्ञान वाले और केवलदर्शनवाले सिद्ध होते है । (केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसिद्धत्व भावों के सिवाय अन्य भावों का मुक्त जीवों के अभाव है। अनन्तवीर्य आदि भावों का उपरोक्त भावों के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होने से उनका अभाव न समझना चाहिए । सिद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं । मुक्त जीवों के भावों का अभाव और सद्भाव औपशमिकादि भव्यत्वाभावाच्चान्यत्र के वलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य : ।४। मुक्त जीव के औपशमिक आदि तथा भव्यत्व भाव का अभाव होता है और केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन तथा केवलसिद्धत्व-इन चार भावों के अलावा अन्य भावों का अभाव होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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