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४५६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ४८-४९ श्रमणों के भेद और भिन्नता विषयक विकल्प -
पुलाकबकुशकुशीलनिर्गन्थस्नातका निर्गन्थाः ।४८। संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्या ।४९।
पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण हैं - (१) पुलाक (२) बकुश (३) कुशील (४) निर्ग्रन्थ और (५) स्नातक ।
संयम, श्रुत ,प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपात और स्थान के विकल्प से इन निर्ग्रन्थों का व्याख्यान करना चाहिए ।
विवेचन -प्रस्तुत सूत्र ४८ में निर्ग्रन्थों के ५ प्रकार बताये हैं और सूत्र ४९ में इन निर्ग्रन्थों से सम्बन्धित अन्य बातों का उल्लेख किया गया है।
निर्ग्रन्थ शब्द का निर्वचन - 'निर्ग्रन्थ' शब्द का अर्थ होता हैग्रन्थि रहित । ग्रन्थि गाँठ को कहते हैं । आध्यात्मिक क्षेत्र में ग्रन्थि अथवा गाँठ होती है- राग की, द्वेष की, मोह की, परिग्रह आदि की । अतः निर्ग्रन्थ का अर्थ हुआ - ऐसा साधक जिस में राग-द्वेष की ग्रन्थि न हो ।
यद्यपि तात्त्विक दृष्टि से निर्ग्रन्थ का यही अर्थ है, किन्तु यह आदर्श स्थिति है । व्यावहारिक दृष्टि से वह साधक निर्ग्रन्थ कहलाता है जो राग द्वेष की ग्रन्थियों को तोड़ने के लिए तत्पर हो, उस आदर्श स्थिति तक पहुंचने के लिए सतत प्रयत्नशील हो ।
- प्रस्तुत सूत्र ४८ में जो पाँच प्रकार के श्रमण बताये गये हैं, उनमे से प्रथम तीन की गणना व्यवहार निर्ग्रन्थों में की जा सकती है और अंतिम दो की गणना आदर्श निर्ग्रन्थों में संक्षेप में, इस सूत्र में व्यावहारिक और आदर्श दोनों ही प्रकार के श्रमणों का उल्लेख किया गया है।
इन पाँचो प्रकार के निर्ग्रन्थों को स्वरूप इस प्रकार है
(१) पुलाक - ' पुलाक एक प्रकार के तुच्छ धान्य को कहा जाता है। जो निम्रन्थ मूलगुण और उत्तरगुणों में परिपूर्ण नहीं है; किन्तु वीतरागप्रणीत धर्म से विचलित नहीं होता है, वह पुलाक निर्ग्रन्थ कहा जाता है।
(२) बकुश - यह निर्ग्रन्थ व्रतों का तो भली प्रकार पालन करते हैं, किन्तु इनके मन में सिद्धि तथा कीर्ति की अभिलाषा रहती है, सुखशील होते हैं, साता और गौरव को धारण करते, ससंग होते हैं, तथा छेद
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