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________________ ४५४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ४७ आभ्यन्तर तपो का साक्षात् फल संवर और निर्जरा है तथा यह निर्वाण प्राप्ति में प्रमुख सहायक हैं- इनका फल निर्वाण अथवा मोक्ष है । ( तालिका ४५१, ४५२, ४५३ देखें) आगम वचन कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा - मिच्छदिट् ठी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छ दिठ् टी अविरयसम्मद्दित् टी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टीबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहुमसंपराए, उवसामए वा खवए वा उवसंतमोहे खीणमोहे सजोगी केवली अजोगीकेवली । समवायांग, समवाय १४ ( कर्म विशुद्धिमार्गणा ( कर्मनिर्जरा) की दृष्टि से चौदह जीवस्थान होते हैं - (१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादनसम्यग्दृष्टि (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) विरताविरत ( देशव्रत के धारक - श्रावक) (६) प्रमत्तसंयत ( मुनि) (७) अप्रमत्तसंयत ( मुनि) (८) निवृत्तिबादर (९) अनिवृत्तिबादर (१०) सूक्ष्मसंपराय उपशमक अथवा क्षपक ( ११ ) - उपशांतमोह ९१२) क्षीणमोह (१३) सयोगिकेवली (जिन) और (१४) अयोगिकेवली (जिन) इनके क्रम से असंख्यात गुणी निर्जरा होती है) । कर्मनिर्जरा का क्रमः सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजक दर्शनमो ह्क्षपकोपशमको पशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिना : क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ) । ४७ । (१) (अविरत ) सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक (अणुव्रती गृहस्थ), (३) विरत ( सर्वत्यागी साधु - श्रमण) (४) अनन्तवियोजक (अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करने वाले (५) दर्शनमोह का क्षय करने वाले (६) दर्शन मोहनीय का उपशमन करने वाले (७) उपशान्त मोह वाले (८) क्षपक (मोह को क्षय करने वाले) (९) क्षीणमोह (जिनका मोहनीयकर्म क्षय हो गया है) (१०) जिन (सर्वज्ञ केवली भगवान) इन दस के क्रमशः असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। विवेचन प्रस्तुत अध्याय के सूत्र संख्या ३ में कहा था कि तप से निर्जरा होती है अब तप के वर्णन के बाद प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि किसको कितनी निर्जरा होती है। प्रस्तुत सूत्र अपेक्षाभेद के आधार पर निर्मित है, इसमें यह बताया Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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