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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग २३ व्याधि अथवा रोग से उत्पन्न होती है। पीड़ा की आशंका से मिथ्यात्वी भयभीत रहता है, किन्तु सम्यक्त्वी ऐसा भय नहीं पालता । वह जानता है अशुभ कर्म या असाता के उदय से वेदना होती है । अतः वह अधिकतर शुभ कर्म ही करता है । फिर भी यदि पूर्वकर्मों के कारण वेदना ही भी जाय तो हर समय उसी का चिन्तन करके आर्तध्यान नहीं करता, अपितु समभावों से उसे भोगकर कर्मों की निर्जरा कर लेता है । सम्यक्त्वी सहिष्णु होता है । (६) अपयश या अश्लोकभय - यद्यपि सम्यक्त्वी मनुष्य ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे समाज में उसकी निन्दा हो, किन्तु फिर भी यदि लोग ईर्ष्या अथवा द्वेषवश उसकी निन्दा करते हैं तो उस निन्दा से वह भयभीत भी नहीं होता और नही उन लोगों को प्रसन्न करने के लिए वह अपनी शुद्ध श्रद्धा के विपरीत कोई आचरण करता है । वह किसी से प्रशंसा पाने की इच्छा भी नहीं करता और निन्दा से डरता भी नहीं, दोनों ही स्थितियों में समताभाव रखने का प्रयास करता है । __ (७) मरणभय - सांसारिक दृष्टि से मरण का भय सबसे बड़ा ह। संसार का कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता, मृत्यु से सदैव भयभीत रहता है, मृत्यु उसे महाभयंकर मालूम होती है । ___ मृत्युभय का मूल कारण है-शरीर के प्रति आसक्ति, जीने का मोह । जीव अपने शरीर को अपने से अभिन्न मानता है । इसीलिए उसे शरीर छोड़ने में घोर कष्ट होता है । किन्तु सम्यक्त्वी तो शरीर को आत्मा से अलग मानता है। वह मानता है कि मेरी आत्मा अजर, अमर, शाश्वत है और शरीर विनाशधर्मा है । इसके साथ मेरा संयोग तभी तक है, जब तक आय कर्म की स्थिति है; ज्यों ही आयु पूरी हुई कि यह शरीर छूट ही जायेगा, फिर मृत्यु का भय क्यों करना, इससे क्यों डरना ? सम्यक्त्वी मृत्यु से डरता नहीं, अपितु वीर योद्धा की भाँति उसका स्वागत करता है । इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वी जीव अपने सम्यक्त्व के बल पर जीवन-कला और मृत्यु-कला दोनों को ही भली भाँति जानता है । वास्तविकता यह है कि यह सातों भय शरीरासक्ति के कारण होते हैं और सम्यक्त्वी शरीरासक्ति से मुक्त रहते की साधना करता है, इसलिए वह निःशंक और निर्भय रहता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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