________________
संवर तथा निर्जरा ४३७ एवं साक्षात् हेतु है ) की है क्योंकि वर्तमान युग के मानवों का उत्तम संहनन न होने पर भी उन्हें धर्मध्यान होता है।
मोक्ष की साधना अति कठिन साधना है और यह भी सत्य है कि बलवान अथवा सुदृढ़ शरीर में ही सुदृढ़ मन का निवास होता है। अतः मन की स्थिरता (मोक्ष-प्राप्ति की दृष्टि से) सुदृढ़ शरीर की अपेक्षा रखती है, इसी कारण यहाँ 'उत्तम संहनन' शब्द दिया गया है।
तीसरा बात यह है कि अन्तर्मुहूर्त काल तक चित्त की एकाग्रता और योगों को निरोध उत्तम संहनन वालों के ही संभव है। अन्य संहनन वाले जीवों में इतने काल तक चित्त को एकाग्र रखने की क्षमता नहीं होती । उनका ध्यान बहुत ही अल्प समय का होता है। जैसा कि आगम उद्धरण 'जहन्नेण एक्क समये' से स्पष्ट है।
ध्यान और ध्यान-प्रवाह- यहाँ प्रत्यक्षदर्शी के मन में जिज्ञासा उठती है कि बहुत से लोग (योगी आदि) तो अन्तर्मुहर्त से अधिक समय तक यहाँ तक कि दिन, पक्ष, मास तक ध्यान करते हैं । फिर अधिकतम अन्तर्मुहूर्त तक ध्यान हो सकता है इस वाक्य की सत्यता कैसे संभव है?
इस शंका से समाधान के लिए 'ध्यान' और 'ध्यान-प्रवाह' इन दो शब्दों का अन्तर समझना आवश्यक है।
साधारणतया श्वास के सूक्ष्मीकरण और शरीर के शिथिलीकरण तथा एकासन से स्थिर रहने की अवस्था को ही लौकिक दृष्टि वाले ध्यान तथा समाधि मान लेते है और वैसा ही प्रचार-प्रसार भी करते हैं ।
____ जबकि ध्यान में चित्त की एकाग्रता, निर्वात स्थान में दीपशिखा की अंकपदशा की भाँति मन का एक विषय पर केन्द्रित होना अनिवार्य है । दिन, पक्ष, मास आदि लम्बे समय तक ध्यान-समाधि लगाने वाले योगियों का ध्यान प्रवाह रूप में बहता रहता है, अनेक विषयों, वस्तुओं, ध्येयों पर घूमता रहता है; अतः उसे एक अपेक्षा से ध्यान का प्रवाह तो कह सकते हैं, किन्तु एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान नहीं, क्योंकि चित्तनिरोधरूप ध्यान यदि इतना लम्बा सध जाये तो फिर मुक्ति होने में विलम्ब ही नहीं होगा ।
अतः यह निश्चित है कि उत्तम संहनन वाले मनुष्यों का ही ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है । आगम वचन -
चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org