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________________ ४३० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र २३ ।। (९) क्रूरतापूर्ण आचरण तथा महाव्रतों को भंग करने पर संघ से अलग रखकर घोर तप कराना और वह तप पूरा कर लेने पर पुनः नई दीक्षा देना, अनवस्था अथवा उपस्थापना प्रायश्चित्त है । इसके अतिरिक्त भगवती (२५/७) आदि शास्त्रों में दसवाँ पारांचिक प्रायश्चित्त और बताया गया है । वह केवली, प्रवचन, संघ के अवर्णवाद आदि बहुत ही गम्भीर दोष की शुद्धि के लिये दिया जाता है। इसमें साधु को १२ वर्ष तक के लिए संघ से निष्कासित किया जा सकता है और बहुत ही कठोर तप से उसकी शुद्धि होती है। उपर्युक्त वर्णित सभी प्रायश्चित्त उत्तरोत्तर गम्भीर-गम्भीरतर होते हैं और इनकी शुद्धि की साधना भी उत्तरोत्तर कठिन होती है। आगम वचन- विणए सत्तविहे पण्णत्ते तं जहा-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कायविणए लोगोवयारविणए । - भगवती, श. २५, उ. ७, सू. २१९ (विनय सात प्रकार का है, यथा - (१) ज्ञानविनय (२) दर्शनविनय ९) चारित्रविनय (४) मनविनय (५) वचनविनय (६) कायविनय और (७) लोकोपचारविनय । विनय तप के भेद - ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ।२३। विनय तप चार प्रकार का है- (१) ज्ञानविनय (२) दर्शनविनय (३) चारित्र विनय और (४) लोकोपचारविनय । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चार प्रकार के विनय बताये गये हैं भगवती, स्थनांग आदि अंग ग्रन्थों में सात प्रकार के विनय कहे गये है । यहाँ उपयोगी होने से हम सात प्रकार के विनय का परिचय देंगे । विनय का अर्थ है -नम्रता, मृदुता, अहंकाररहितता, आदर भाव । गुणियों और गुणों के प्रति आदर-सम्मान विनयतप है । (१) ज्ञानविनय - आलस्यरहित होकर श्रद्धा और आदर के साथ जिनोक्त शास्त्रों का अभ्यास करना, इन पर बार-बार चिन्तन करना, स्मृति में दृढ़ करना ज्ञानविनय कहलाता है । साथ ही मति-श्रुत-अवधि-मनः पर्यव और केवलज्ञानियों के प्रति श्रद्धा विश्वास और आदर-सम्मान के भाव रखना भी ज्ञानविनय है । गुणियों की अपेक्षा ज्ञानविनय के पाँच भेद माने जाते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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