SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग २१ सम्यक् होते हैं तथा मोक्ष के साधनभूत उपाय बनते हैं । अतः निर्दोष अथवा विशुद्ध सम्यग्दर्शन का स्वरूप भली भाँति जान लेना आवश्यक है । ग्रंथों में कहा गया है कि २५ दोषों से रहित सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है । एक श्लोक में इन २५ दोषों का उल्लेख इस प्रकार है - मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ, तथाऽनायतनानि षट् । अष्टौ शंकादयश्चेति, दृग्तोषा पंचविंशतिः ॥ - ३ मूढ़ताएँ, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंकादि दोष-ये सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं । आठ शंकादि दोष शंकादि दोषों के विपरीत सम्यक्त्व के आठ अंग भी माने जाते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मैल निकल जाने से वस्त्र में उज्वलता या सफेदी आती है और उससे शुभ्रता-चमक बढ़ जाती है, उसी प्रकार दोषों के निकल जाने से सम्यक्त्व में जो विशुद्धि आती है, वह आठ गुणों अथवा अंगों के रूप में प्रगट होती है,। इसी रूप में आत्मा इन अंगों का अनुभव करता है । . जिस प्रकार शरीर के आठ मुख्य अंग हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्व के ये आठ अंग भी प्रमुख हैं । जैसे शरीर में आँख, नाक आदि एक भी अंग की कमी होने से शरीर की सुन्दरता एवं उपयोगिता ही कम हो जाती है, उसी प्रकार सम्यक्त्व का एक भी अंग कम होने से सम्यक्त्व की महिमा और उसकी तेजस्विता क्षीण हो जाती है । इसी कारण अनेक ग्रंथों में इन अंगों का वर्णन किया गया है । उत्तराध्ययन सूत्र (२८/३१) में इन अंगों के नाम इस प्रकार हैं - . निस्संकिय निक्कं खिय निवितिगिच्छा अमूढदिठी य । उववूह थिरीकरणे वच्छल-पभावणे अठ ॥ (१) निस्संकिय (निःशंकता) - इसका अभिप्राय है, तीर्थंकरों के वचनों में, देव-शास्त्र-गुरू के स्वरूप में किसी प्रकार की भी शंका न करना। शंका के दो अर्थ किये गये हैं -१. संदेह तथा २. भय । यदि गहराई से देखा जाय तो भय भी शंका से ही उत्पन्न होता है, तथा यह अविश्वास का द्योतक है । भय उसी व्यक्ति को होता है, जिसे अपनी आत्मशक्ति तथा कर्मसिद्धान्त के प्रति पूरा विश्वास नहीं होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy