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________________ ४२४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय : सूत्र १९-२० -२१ (स) प्रतिक्रम (द) अप्रतिक्रम -पादपोपगमन वाले प्रतिक्रमण नहीं करते। जिनके शरीर की अंत्येष्टि होती है। - भक्त प्रत्याख्यान अनशन वाले प्रतिक्रमण करते है । (य) निर्धारिम (र) अनिर्धारिम पर्वत गुफा आदि निर्जन प्रदेश में संथारा करते हैं । (२) ऊनोदरी तप ऊन=कर्म अर्थात् पेट में जितनी भूख है, उससे कम आहार ग्रहण करना । इसी का दूसरा नाम अवमौदर्य है जो सूत्र में दिया गया है। इनके शरीर की अन्येष्टि नहीं होती; क्योंकि ये उक्त अर्थ भोजन की अपेक्षा से है; किन्तु ऊनोदरी का वास्तविक अभिप्राय कम करना है । वह कमी भोजन, वस्त्र, उपकरण, मन-वचन-काय योगों की चपलता में भी की जाती है। ऊनोदरी के मुख्य भेद दो हैं 1 ऊनोदरी । द्रव्य ऊनोदरी के तीन उत्तर भेद हैं (१) आहार की अल्पता (२) वस्त्र की अल्पता (२) उपकरण की अल्पता । भाव उनोदरी के ८ भेद है - (१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ (५) राग (६) द्वेष (७) क्लेश - इनको कम करे और (८) थोड़ा बोले । इसका अभिप्राय है लालसा कम करना । विभिन्न वस्तुओं के प्रति अपनी इच्छाओं को कम या सीमित करना । (३) वृत्तिपरिसंख्यानतप (४) रसपरित्याग है । जीभ को स्वादिष्ट लगने I Jain Education International (१) द्रव्य ऊनोदरी (२) भाव - साधु की अपेक्षा इसे भिक्षाचारी तप कहा गया है । साधु इस तप के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के अभिग्रह लेता है; जैसे- आज इतने ( संख्या में उदाहरणतः ६,७ आदि) ही घरों में भिक्षा हेतु जाऊँगा, अथवा अमुक मुहल्ले में ही जाऊँगा आदि-आदि । किन्तु श्रावक भिक्षा से भोजन प्राप्त नहीं करता । वही अपनी वृत्तियों को संक्षिप्त करता है । श्रावक के १४ नियम जो प्रतिदिन चिन्तन किये जाते है, इसी तप की ओर संकेत करते हैं अर्थात् इस तप की साधना के अन्तर्गत आते है । इस तप का उद्देश्य स्वादवृत्ति पर विजय पाना वाली और इन्द्रिय को उत्तेजित करने वाली भोज्य वस्तुओं का त्याग करना, रसपरित्याग तप है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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