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________________ ४१८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र १८ उपरोक्त विवेचनगत सूत्रों में अधिकतम संभव परीषहों की संख्या का निर्देश हैं किन्तु १७ वें सूत्र में यह बताया गया हैं कि एक साथ अधिक से अधिक १९ परीषहों का वेदन जीव (जिस जीव को २२ परिषह संभव है ) कर सकता है । इसका हेतु यह है कि कोई भी जीव शीत और उष्ण परीषह में से किसी एक का एक समय में वेदन कर सकता है, परस्पर विरोधी होने का कारण दोनों का एक साथ वेदन संभव नहीं है। इसी प्रकार शय्या, चर्या और निषद्या में से जीव एक समय में एक काही वेदन कर सकता है, तीनों का एक साथ नहीं कर सकता । अतः शीत, उष्ण, चर्या, शय्या, निषद्या में से २ का वेदन संभव हो सकने के कारण २२ परीषहों में से तीन कम करने से १९ परीषह शेष बचते हैं, उन्हीं का वेदन हो सकता है । आगम वचन - सामाइयत्थ पढमं, छेदोवठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं. सुहुम तह संपरायं । अक सायमहक्खायं छउमत्थस्स जिणस्स वा । एवं चयरित्तकरं, चारित्तं होइ आहियं । उत्तरा २८/३२-३३ ((१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहारविशुद्धि ( ४ ) सूक्ष्मसम्पराय और (५) यथाख्यात ( बिना कषायवाला) यह छद्मस्थ अथवा जिन (अर्हन्त भगवान) के चारित्र कहे गये हैं । ये कर्मों को समूल नष्ट करने वाले हैं ।) चारित्र के प्रकार सामायिकच्छे दोपस्थाष्यपरिहार विशुद्धिसूक्ष्मसंपरया यथाख्यातमितिचारित्रम् |१८| चारित्र पाँच प्रकार का है (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापन (३) पहरिहारविशुद्धि ( ४ ) सूक्ष्मसंपराय और (५) यथाख्यात । Jain Education International - विवेचन संसार बढ़ाने वाली क्रियाओं से विमुख होकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयत्न अथवा क्रिया चारित्र है । उस प्रयत्न से आत्मा के परिणामों मे विशुद्धि आती है । इस विशुद्धि के तरतम भाव की अपेक्षा पाँच प्रकार के चारित्र माने गये है । यही पाँच भेद सूत्र में उल्लिखित हैं । इन पाँचों प्रकार के चारित्रों का परिचय इस प्रकार है । - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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