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४०८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ७
अवायाणुप्पेहा ७ । -स्थानांग, स्था. ४, उ. १, सू. २४७ संवरे (अणुप्पेहा) ८ । जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्सगामिणी ।
__ - उत्तरा. २३/७१ णिज्जरे (अणुप्पेहा) ९। - स्थानांग, स्था. १, सू. १६ लोगे (अणुप्पेहा) १०। - स्थानांग, स्था. १, सू. ५ बोहिदुल्लहे (अणुप्पेहा) ११ । .. संबोहि खलु पेच दुलहा । - सूत्रकृतांग, श्रु. १, गा. १ धम्मे (अणुप्पेहा) १२ - उत्तम धम्मसुई हु दुल्लहा । ।
- उत्तरा. १०.१८ (१) अनित्यानुप्रेक्षा (२) अशरणानुपेक्षा (३) एकत्वानुपेक्षा (४) संसारानुप्रेक्षा ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा (ज्ञातिजनों के सम्बन्ध भिन्न है और मैं भिन्न हूँ) (६) अशुचिअनुप्रेक्षा । (७) अपायानुप्रेक्षा । (आस्रवानुप्रेक्षा) ।
(८) संवरानुप्रेक्षा - जीव नाव में छिद्र नहीं होता, वरी पार ले जा सकती है (निरस्साविणी - आश्रवरहित, अर्थात् संवरयुक्त ।)
(९) निर्जरानुप्रेक्षा, (१०) लोकानुप्रेक्षा (११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा संबोधि - ज्ञान को प्राप्त करना दुर्लभ है ।
(१२) धर्मानुप्रेक्षा (उत्तम धर्म का सुनना बड़ा दुर्लभ है।) वैराग्य भावनाएँ -
अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वानवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ७।
(१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचि (७) आस्रव (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोक (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्म- इन बारह को भली प्रकार समझकर इनके स्वरूप का बारबार चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है ।
विवेचन - 'प्रेक्षा' शब्द का अभिप्राय है देखना और अनुप्रेक्षा का अभिप्राय है- चिन्तन-मननपूर्वक देखना, मन को उसमें रमाना, उन संस्कारों को दृढ़ करना ।
दशवैकालकिचूर्णि (पृष्ठ २९) में अनुप्रेक्षा का लक्षण दिया गया है
अणुप्पेहा णाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए - जिसका मन से (वचन से नहीं) चिन्तन किया जाये, वह अनुप्रेक्षा है।
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