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________________ ३९० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १३ १०. अयशःकीर्तिनाम कर्म के उदय से जीव को भलाई करने पर भी बुराई ही मिलती है, उसका अपयश ही होता है। इनमें त्रसदशक (१० प्रकृतियों) की गणना पुण्यप्रकृतियों में तथा स्थावरदशक की गणना पाप-प्रकृतियों में की जाती है । इस प्रकार सूत्र में बताई गई नामकर्म की ४२ प्रकृतियों के कुल भेद ९३ (१४ पिण्ड प्रकृतियों के ६५ भेद, ८ प्रत्येक प्रकृतियां, १० त्रसदशक और १० स्थावर दशक=६५+८+१०+१०=९३) होते हैं । कुछ कर्मग्रन्थकार बन्धननामकर्म के ५. के स्थान पर १५ भेद मानते हैं । इनके मतानुसार नामकर्म की प्रकृतियां १०३ होती हैं । किन्तु १०३ प्रकृति वाला मत सर्वमान्य नहीं है, अतः प्रचलन में भी नहीं हैं । बंध, उदय, सत्ता आदि कर्म की विभिन्न विचारणाओं में ९३ प्रकृतियां ही स्वीकार की गई हैं और इन्हीं के आधार पर संपूर्ण कर्म-विचारणा की गई । (- तालिका पृष्ठ ३८७-८८-८९ पर देखे) आगम वचन - गोए णं भते ! कम्मे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उच्चागोए य नीयागोए य । - प्रज्ञापना पद २३, उ. २, सूत्र २९३ (भगवन् ! गोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वह दो प्रकार का है - (१) उच्चगोत्र (२) नीचगोत्र । गोत्रकर्म के भेद - उच्चैर्नीचैश्च ।१३। (गोत्र कर्म की दो प्रकृतियां है- (१) उच्चगोत्र और (२) नीचगोत्र । विवेचन - सामान्यतः उच्चगोत्र का लक्षण है उत्तम कुल में जन्म लेना और नीच गोत्र का अभिप्राय है लोकनिन्द्य कुल में जन्म ग्रहण करना है। किन्तु कौन-सा कुल उच्च है और कौन-सा नीच ? यह मानदंड समय-समय पर बदलता रहता है, उच्चगोत्री भी निन्द्य कर्म करते हैं तो उनकी संसार में निन्दा होती है । यदि भारत की वर्णव्यवस्था की अपेक्षा से विचार किया जाए तो क्षत्रिय उच्चगोत्री हैं, किन्तु क्या उस वंश में लोकनिन्द्य पुरुषों ने जन्म नहीं लिया? अतः ऊँच नीच गोत्रकर्म का लक्षण का इस प्रकार दिया गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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