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________________ १६ तत्त्वार्थ सूत्र तो देशना-धर्मोपदेश नहीं मिलता; किन्तु पहले कभी-किसी पूर्व जन्म में भी उसे धर्मोपदेश प्राप्त हो चुका होता है; यह बात दूसरी है कि उसने उस समय सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया और अब, जबकि साक्षात् गुरु से धर्म का उपदेश न सुनकर, किन्तु पहले सुने हुए धर्मोपदेश के संस्कारों के प्रभाववश, स्वंय ही अपने परिणाम से, निसर्ग रूप में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाय यही निसर्गज सम्यक्त्व कहलाता है । 'भेदः साक्षादसाक्षाच' का हार्द इस दृष्टान्त से स्पष्ट हो जायेगा एक प्रौढ़ व्यक्ति है, ५० वर्ष की आयु है, उसके दाँत में या दाढ़ में दर्द हो रहा है, असह्य दर्द है, तड़प रहा है, बहुत दुःखी है, मन में एक ही इच्छा है, किसी तरह दर्द मिटे, चैन आये, शांति मिले । वेदना की तीव्रता ने उसके मन-बुद्धि को झकझोर दिया, नाड़ी संस्थान को उद्वेलित कर दिया, चेतना का प्रवाह पीछे की ओर चलने लगा, बडे तीव्र वेग से । अचानक ही उसके मस्तिष्क में कौंधा- जब मैं दस वर्ष का था, तब भी दाढ़ में ऐसा ही दर्द हुआ था । पिताजी ने लोंग का तेल लगा दिया था, दर्द ठीक हो गया था । उपाय मिल गया, उसका दर्द ठीक हो गया । ___ इस समय उसके पिता भी नहीं हैं, वैद्य-डाक्टर भी नहीं है, कोई सलाह देने वाला भी नहीं है, उसे नैसर्गिक रूप से ४० साल पहले की घटना याद आगई, इसका दाँत का दर्द मिट गया । इसी प्रकार ४ या ४० लाख अथवा कितने ही जन्म पहले उसने किसी सद्गुरुदेव से, तीर्थंकर से धर्म का, आत्मा का स्वरूप सुना किन्तु उस समय ग्रहण नहीं किया, धर्म का स्पर्श नहीं हुआ । फिर किसी निमित्त से हजारों लाखों जन्मों के बाद भी वह धर्म सन्देश आत्मा में स्वयं ही नैसर्गिक रूप से उभर आया – ठीक उसी प्रकार जैसे सोमिल के हृदय में श्मशान में ध्यानस्थ मुनि गजसुकमाल के प्रति ९९ लाख भव पहले के वैर बंध के कारण क्रोध की ज्वाला धधक उठी थी । बस, यही साक्षात्-असाक्षात् धर्मोपदेश का रहस्य है । इसी प्रकार नैसर्गिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । निसर्गज और अधिगमज सम्य्कत्व के अतिरिक्त सम्यक्त्व के और भी भेद है । उनकी भी जानकारी यहाँ अपेक्षित है । सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन के प्रमुख भेद हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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