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३७२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र १० तेल-पानी के प्रयोग से झूक जाता है ऐसे ही यह मान आत्मा के अल्प प्रयास से ही समाप्त हो जाता है ।
११. प्रत्याख्यानावरण माया - यह वक्रता प्रयास से सरलता में परिवर्तित हो जाती है। जैसे चलते बैल की मूत्र की लकीर शीघ्र ही सूखकर समाप्त हो जाती है ।
१२. प्रत्याख्यानावरण लोभ - यह लोभ उसी प्रकार सरलता से मिट जाने वाला है, जैसे खंजन गाड़ी के पहिए का कीट । ..
(घ) संज्वलनकषाय - की स्थिति १५ दिन है । यह साधु की चित्त समाधि और शांति नहीं होने देता, यथाख्यातचारित्र का घात करता है । केवलज्ञान-दर्शन का उत्पत्ति में बाधक बनता है ।
- १३. संज्वलन क्रोध - पानी में खींची गई लकीर के समान बिना प्रयास के स्वयमेव ही शांत हो जाता है ।
१४. संज्वलन मान- उसी तरह अपने आप ही विनमित हो जाता है जैसे लता झुक जाती है ।
१५. संज्वलन माया - की वक्रता (टेढ़ापन) बाँस के छिलकों के टेढ़ेपन का समान, स्वयं ही मिट जाती है ।
१६. संज्वलन लोभ - हल्दी फिटकरी के रंग के समान अपने आप ही मिट जाने वाला है ।
(स) नोकषायमोहनीय - 'नो' का अर्थ- ईषत्, अल्प (Megre) अथवा सहायक (Auxiliary) है अतः नोकषाय का अर्थ हुआ अल्प अथवा छोटे कषाय या सहायक कषाय
___ वास्तव में नोकषाय प्रधान कषायों के साथ उत्पन्न होते हैं और उन्हें उत्तेजित करते हैं । एक अपेक्षा से इन्हे मानसिक विकार भी कहा जा सकता है । पश्चिमी मनोविज्ञान शास्त्रियों ने इन्हें मूल प्रवृत्ति (Instincts) कहा है।
१. हास्य - हँसी, मजाक, भाँड़ आदि जैसी चेष्टाएँ ।
२-३. रति-अरति- सचित्त-अचित्त पदार्थों में सकारण अथवा अकारण रुचि और अरुचि होना । अथवा सांसारिकता की ओर अभिरुचि और संयम में अरुचि भी रति-अरति है ।
४. शोक - इष्टवियोग, अविष्टसंयोग आदि के कारण होने वाला मानसिक क्लेश
५. भय - स्वयं अपने जीवन, शरीर, धन, पुत्र आदि की रक्षा के
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