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________________ ३६२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ५-६ - (आद्य) प्रथम (प्रकृतिबन्ध) के (मूल) आठ प्रकार है १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय ५. आयु. ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय इन ( मूलप्रकृतियों) के क्रमश: पांच, नौ, दौ, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच भेद (उत्तरप्रकृतियां ) हैं ! विवेचन प्रस्तुत सूत्र ५ में मूल कर्मप्रकृतियों के नाम बताये गये हैं और सूत्र ६ में इन मूल प्रकृतियों के उत्तरभेदों की संख्या का संकेत दिया गया है । - मूल कर्मप्रकृतियों के लक्षण, स्वभाव और विभिन्न अपेक्षाओं से भेदों का वर्णन इस प्रकार है । मूल कर्म प्रकृतियों १. ज्ञानावरण कर्म २. दर्शनावरण कर्म ३. वेदनीय कर्म कराता है - - Jain Education International के नाम, लक्षण अथवा स्वरूप यह आत्मा के ज्ञान गुण को ढकता है । आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करता - ४. मोहनीय कर्म यह जीव के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है, जीव को स्वर - पर- विवेक, अपने स्वरूप का श्रद्धान और स्वस्वरूपरमणता नहीं होने देता, बहिर्मुखीः भवाभिनन्दी बनाये रखता है । - - - ५. आयु कर्म यह कर्म जीव को किसी एक पर्याय में रोके रखात है, दूसरे शब्दों में इस कर्म के कारण भव धारण होता है, इसी की अपेक्षा लोक में कहा जाता कि अमुक व्यक्ति जीवित है । है यह जीव को सांसारिक सुख - दुःखो की अनुभूति ६. नाम कर्म इस कर्म के कारण जीव को विभिन्न प्रकार की गति, जाति आदि प्राप्त होती है तथा विभिन्न प्रकार के शरीरों की रचना होती है । ७. गोत्र कर्म इस कर्म के उदय से जीव में पूजय्ता, अपूजय्ता के भाव आहे हैं, वह उँच या नीच कुल में जन्म लेता है अथवा ऊँच-नीच कहलाता है । ८. अन्तराय - यह जीव की वीर्यशक्ति का घात करता है । उसके दान, लाभ, भोग आदि के उत्साह में बाधक बनता है । मूल कर्मप्रकृतियों का स्वभाव १. ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव आँखों पर पट्टी बँधने जैसा है । जिस For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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