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तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ४
भी कम या अधिक विभिन्न प्रकार के होते है- यह प्रदेश बन्ध का उदाहरण हैं ।
कोई लड्डू वात-पित्तनाशक है, तो कोई गरिष्ठ, दुष्पाच्य और रोग उत्पन्न करने वाला है, यह मोदकों की प्रकृति अथवा स्वभाव है । इसी प्रकार जीव से सम्बद्ध कर्म - पुद्गलों में से किसी का आवरक स्वभाव होता है, और किसी का स्वभाव शरीर का चयोपचय - हानि-वृद्धि करने वाला । इस विभिन्न प्रकार के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं । यह प्रकृतिबन्ध का उदाहरण है ।
जिस प्रकार एक निश्चित समय तक ही मोदकों के परमाणु चिपके रहते हैं, मोदक रूप में रहते हैं और उसके बाद बिखर जाते हैं, अलग-अलग हो जाते हैं, उनका मोदक रूप समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार निश्चित समय तक ही कर्म-परमाणु आत्मा से चिपके रहते हैं, उसके बाद झड़ जाते हैं, अलग हो जाते हैं । यह स्थितिबन्ध का उदाहरण हैं ।
जिस प्रकार लड्डुओं में मधुर तिक्त आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वाद (रस) होते हैं और फिर मधुर में भी कम मीठा, अधिक मीठा आदि तरतमभाव होता है उसी प्रकार कर्मों में सुखद - दुःखद, शुभ -अशुभ, मन्दतीव्र आदि विभिन्न प्रकार के अनुभाव वेदन कराने की, फल देने की, रस का आस्वादन कराने की शक्ति होती है । यह अनुभावबंध का उदाहरण है ।
आचार्य प्रवर ने अपने सूत्र में बंध के इन्ही ४ प्रकारों (भेदों अथवा विधियों) का निर्देश किया हैं; किन्तु कर्मग्रन्थों में अन्य अपेक्षा से भी बन्ध के चार प्रकारों का वर्णन किया गया है । साथ ही कर्म की ११ दशाओं (बंध सहित) का वर्णन किया गया है । प्रसंगोपात्त होने से हम उन सभी का परिचय यहां दे रहे हैं जिससे बंध का विषय सुगमतापूर्वक पूर्ण रूप से समझ में आ
जाय ।
१. बंध
(क) बद्ध - कर्म - प्रायोग्य पुद्गलों - कर्म - दलिकों अथवा कर्म वर्गणाओं का एक जगह (स्थान पर) इकट्ठा हो जाना; जैसे एक स्थान पर सुइयां एकत्रित हो जाये.
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इसके अन्य अपेक्षा से यह चार भेद हैं
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(ख) स्पृष्ट आत्म-प्रदेशों से कर्मो का संश्लिष्ट हो जाना, चिपक जाना; जैसे सुइयों को धागे द्वारा मजबूती से बाँध दिया जाय ।
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(ग) बद्ध-स्पृष्ट आत्म-प्रदेशों का कर्म - पुद्गलों के साथ एकमेक हो जाना; जैसे दूध और पानी मिल जाते हैं, एक मेक हो जाते हैं ।
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