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________________ ३३६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र २४-२५ आगम वचन दिसिवयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहाउड् ढ दिसिपरिमाणाइक्क मे अहो दिसिपरिमाणाइक्क मे तिरियदिसिपरिमाणाइक्कमे खेत्तुवुड्ढिस्स सअंतराश्रद्धा । उपासकदशांग अ. १ - (दिव्रत के पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, . आचरण करने योग्य नहीं हैं, यथा (१) ऊर्ध्वदिशा प्रमाणातिक्रम ( २ ) अधोदिशा प्रमाणातिक्रम (३) तिर्यदिशा प्रमाणातिक्रम (४) क्षेत्र के परिमाण को बढ़ा लेना (५) किये हुए परिमाण को भूल जाना । दिग्वत के अतिचार ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि । २५ । ((१-३) ऊँची-नीची और तिरछी दिशाओं में किये हुए परिमाण का अतिक्रमण करना (४) मर्यादित क्षेत्र को बढ़ा लेना और ( ५ ) की हुई मर्यादा को भूल जाना यह पाँच दिव्रत के अतिचार है । विवेचन ऊंची-नीची यानी आकाश में पर्वत आदि के ऊपर चढ़ना तथा भूमितल से नीचे भूमिगृह, कन्दरा, सागर आदि में उतरना तथा पूर्व - पश्चिम आदि सभी दिशाओं में जिलनी मर्यादा निश्चित की है, उससे आगे चले जाना, यह दिशा (ऊर्ध्व - अधो- तिर्यदिशा) नाम के तीन अतिचार है। क्षेत्र वृद्धि साधक दो प्रकार से कर लेता है (१) किसी एक दिशा में परिमाण बढ़ा लेता है और (२) कभी - कभी ऐसा भी करता है कि एक दिशा में परिमाण कम करके दूसरी दिशा में उतना ही परिमाण बढ़ा लेता है, ऐसा वह अपने किसी भौतिक स्वार्थ के लिए ही करता है, फिर भी वह मन में यह समझता कि मेरा कुल परिमाण तो उतना ही रहा, अतः व्रत में दोष नहीं लगा किन्तु वास्तव में यह अतिचार है । - Jain Education International - - - कभी-कभी प्रमादवश या अन्य किसी कारण से साधक अपनी ग्रहण की हुई मर्यादा को भूल जाता है, यह इस व्रत का पाँचवा अतिचार है । आगम वचन देसावगासियस्स समणोवासएणं अइयारा... तं जहाआणवणपओगे पेसवणपयोगे सद्दाणुवाए रूवाणुवाए बहियापोग्गलपक्खेवे | - उपासक, अ. १ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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